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________________ ३५२ सप्ततिकाप्रकरण जैसे पुरुपवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला पुरुपवेदका । जिन ' कर्मोंका अन्तरकरण करते समय उदय ही होता है. बन्ध नहीं, होता; उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोंको प्रथम स्थितिमें ही क्षेपण करता है द्वितीय स्थितिमें नहीं जैसे स्त्रीवेटके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला स्त्रीवेदका । अन्तरकरण करनेके समय जिन कर्मोका उदय न होकर केवल वन्ध ही होता है उसके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकोको द्वितीय स्थितिमें ही क्षेपण करता है, प्रथम स्थितिमें नहीं। जैसे सज्वलन क्रोधके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला शेष संज्वलनोंका । किन्तु अन्तरकरण करनेके समय जिन कर्मोका न तोवन्ध ही होता है और न उदय हो उनके अन्तरकरणसम्बन्धी दलिकोका अन्य सजातीय वधनेवाली प्रकृतियोंमें क्षेपण करता है। जैसे दूसरी और तीसरी कपायोका। अन्तरकरण करके नपुंसकवेदका उपशम करता है। पहले समयमें सवसे थोड़े दलिकोका उपशम करता है 'दूसरे समयमे असख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। तीसरे समयमें इससे असंख्यातगुणे दलिकोंका उपशम करता है। इस प्रकार अन्तिम समय प्राप्त होने तक प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। तथा जिस समय जितने दलिकोका उपशम करता है उस समय उससे असंख्यातगुणे दलिकोका परप्रकृतियोमे क्षेपण करता है। किन्तु यह क्रम उपान्त्य समय तक ही चालू रहता है। अन्तिम समयमें तो जितने दलिकोका पर प्रकृतियोंमे संक्रमण होता है उससे असख्यातगुणे दलिकोका उपशम करता है। इसके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमें स्त्रीवेदका उपशम करता है। 'इसके बाद एक अन्तर्मुहूर्तमे हास्यादि छहका उपशम करता है.। हास्यादिश्छहका उपशम होते ही पुरुपवेदके 'बन्ध, और उदीरणाका तथा प्रथम स्थितिका विच्छेद हो जाता है। किन्तु आगाल प्रथम
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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