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________________ गुणस्थानोंमें नामकर्मके संवेध भग २६७ बन्ध नहीं करते क्योकि नारकियोंके सामान्यसे ही एकेन्द्रियोके योग्य प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता। अत यह सिद्ध हुआ कि २३ प्रकृतिक बन्धस्थानोमें देव और नारकियोके उदयस्थान सम्बन्धी भग नहीं प्राप्त होते । तथा यहाँ १२, ८,८६, ८० और ७८ ये पाँच सत्त्वस्थान होते है। सो२१, २४, २५ और २६ इन चार उदयस्थानोमें उक्त पाँचों ही सत्त्वस्थान होते हैं। तथा २७, २८, २९, ३० और ३१ इन पॉच उदयस्थानोमें ७८ के विना पूर्वोक्त चार, चार सत्त्वस्थान होते हैं। इस प्रकार यहाँ सव उदयस्थानोकी अपेक्षा कुल ४० सत्त्वस्थान होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि २५ प्रकृतिक उदयस्थानमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके ही होता है। तथा २६ प्रकृतिक उदयस्थानमें ७८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके भी होता है और जो अग्निकायिक तथा वायुकायिक जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रियोमे उत्पन्न होते है कुछ काल तक उनके भी होता है । २५ और २६ प्रकृतिक बन्धस्थानोमें भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि देव भी अपने सव उदयस्थानोंमे रहते हुए पर्याप्त एकेन्द्रियके योग्य २५ और २६ प्रकृतिक स्थानोंका वन्ध करता है। परन्तु इसके २५ प्रकृतिक बन्धस्थानके वादर, पर्याप्त और प्रत्येक प्रायोग्य पाठ ही भग होते हैं बाकीके १२ भग नहीं होते, क्योकि देव सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तकोमें नहीं उत्पन्न होता, इससे उसके इनके योग्य प्रकृतियोका बन्ध भी नहीं होता। इस प्रकार यहाँ भी चालीस, चालीस सत्त्वस्थान होते हैं। २८ प्रकृतियोका वध करनेवाले मिथ्याष्टिके ३० और ३१ ये दो उदयस्थान होते हैं। इनमेसे ३० प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य दोनोके
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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