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________________ वेदनीय, आयु व गोत्र कर्मका विचार ३९ ऐला नियम है कि जो प्रकृतियाँ स्वोदयसे क्षयको प्राप्त नहीं होती हैं उनका प्रत्येक निषेक अपने उपान्त्य समयमें स्तिवुक सक्रमणके द्वारा उदयगत अन्य सजातीय प्रकृतिरूपसे सक्रमित होता जाता है। इस हिसावसे निद्रा और प्रचलाका क्षीणमोह गुणस्थानके उपान्त्य समयमे सत्त्वनाश मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है पर जिन आचार्योंके मतसे क्षपकश्रेणीमें और क्षीणमोह गुणस्थानमे निद्रा और प्रचलाका उदय सम्भव है उनके अभिप्रायानुसार इन दोनोका क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त समयमें सत्वनाश स्वीकार न करके उपान्त्य समयमें ही क्यो स्वीकार किया गया है यह वात विचारणीय अवश्य है। अव वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें सवेध भग वतलाते है वेयेणियाउयगोए विभज मोहं परं वोच्छं ॥९॥ अर्थ-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें बन्धादिस्थान और संवेध भगोका विभाग करके पश्चात् मोहनीयके वन्धादिस्थानोका कथन करेंगे ।। विशेपार्थ-ग्रन्थकर्ताने मूलमें वेदनीय, आयु और गोत्र कर्ममें विभाग करनेकी सूचनामात्र की है। किन्तु किस कर्ममें अपनी अपनी उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा कितने बन्धादिस्थान और उनके कितने सवेध भग होते हैं यह नहीं बतलाया है। किन्तु मलयगिरि आचार्यने अपनी टीकामें इसका विस्तृत विचार किया है अत उसीके अनुसार यहा इन सव वातोको लिखते हैं (१) 'दो संतवाणाइ बन्धे उदए य ठागायं एक। वेयणियाउयगोए । ॥-पञ्चसं० सप्तति० गा० ६ । 'तदियं गोदं आउं विभज मोहं पर घोच्छ।-गो० कर्म० गा० ६३२ ॥
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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