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________________ चारित्रमोहनीयको क्षपणा ३६५ पूरी तरहमे नीण कर दिया जाता है । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायकी आठ प्रकृतियोंके जयका प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है तो भी इनका क्षय होनके पहले मध्यमें ही उक्त स्त्यानचि आदि मोहल प्रकृतियोका क्षय हो जाता है और इनके क्षय होने के पश्चात् अन्तमुहर्तमे उक्त आठ कपायोका जय होता है। किन्तु इस विपयमें किन्हीं आचार्यो का सा भो मत है कि यद्यपि सोलह कपायोके क्षयका प्रारम्भ पहले कर दिया जाता है तो भी आठ कपायोका क्षय हो जाने पर ही उक्त सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है। इसके पश्चात् नौनोकपाय और चार सज्वलन इन तेरह प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करनेके वाद नपुसकवेदके उपरितन न्थितिगत दलिकोका उद्घलना विधिसे क्षय करता है। और इस प्रकार अन्तर्मुहर्त में उसकी पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण स्थिति शेप रह जाती है । तत्पश्चात् इसके दलिकोका गुणसक्रमके द्वारा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियोमे निक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तमें इसका समूल नाश हो जाता है। यहाँ इतना विशेप जानना चाहिये कि जो जीव नपुसकवेदके उदयके साथ आपकश्रेणि पर चढ़ता है वह उसके अधस्तन दलकोका वेदन करते हुए क्षय करता है। इस प्रकार नपुसकवेदका क्षय हो जाने पर अन्तमुहूर्तमें इसी कमसे स्त्रीवेदका क्षय किया जाता है। तदनन्तर छह नोकपायोके क्षयका एक साथ प्रारम्भ किया जाता है। छह नोकपायोंके नयका प्रारम्भ कर लेनेके पश्चात् इनका सक्रमण पुरुपवेदमें न होकर संज्वलन क्रोध होता है और इस प्रकार इनका क्षय कर दिया जाता है। जिस समय छह नोकषायोका क्षय होता है उसी समय पुरुपवेदके बन्ध, उदय और उदीरणाकी व्युच्छित्ति होती है तथा एक समय कम दो आवलिप्रमाण समय
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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