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सप्ततिकाप्रकरण हो । ये चन्द्रर्षि महत्तरकी बूर्णि और मलयगिरिकी टीका इन दोनों में संगृहीत है। मलयगिरिकी टीफामें इन्हें स्पष्टत. अन्तर्भाप्य गाथा कह कर संकलित किया गया है। चूर्णिमें प्रारम्भ की सात गाथाओंको तो अन्तर्भाव्य गाथा बतलाया है किन्तु अन्तकी तीन गाथाओंका निर्देश अन्तर्भाष्य गाथारूपसे नहीं क्यिा है। चूर्णिमें इन पर टीका भी लिखी गई है।
चूणि-यह मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हुई है। जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं इसके कर्ता चन्द्रर्पि महत्तर प्रतीत होते हैं। प्राचार्य मलयगिरिने इसका खूब उपयोग किया है। वे चूर्णिकारकी स्तुति करते हुए सप्ततिकाके ऊपर लिखी गई अपनी वृत्तिकी शस्तिमें लिखते हैं
'यैरेषा विषमार्था सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक् ।
अनुपकृतपरोपकृतश्चूणिकृतस्तान् नमस्कुर्वे ।। जिन्होंने इस विषम अर्थवाली स्प्ततिकाको भले प्रकार स्फुट कर दिया है। नि:स्वार्थ भावसे दूसरोका पार करनेवाले बन चूणिकारको मैं (मलयगिरि ) नमस्कार करता हूँ। . ___ सचमुचमें यह चूर्णी ऐसी ही लिखी गई है। इसमें सप्ततिकाके प्रत्येक पदका वढी ही सुन्दरतासे खुलासा किया गया है। खुलासा करते समय अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये गये हैं। उद्धरण देते समय शतक सत्कर्म कपायप्राभूत और कर्मप्रकृतिसंग्रहणीका इसमें भरपूर
(१) 'एएसि विवरणं जहा सयगे।' ५० ४ । 'एएसि भेश्रो सरूवनिरूपणा जहा सयगे।' १० ५। इत्यादि । (२) 'संतकम्मे भगिय ।' प० ७ । 'श्रणे भणति--सुस्सरं विगलिंदियाण पत्थि, तण्ण, संतकम्मे उक्तत्वात् ।' ५० २२ । इत्यादि । (३) 'जहा कसायपाहुडे कम्मपगडि सगहणीए वा तहा क्त्तव्यं ।' प० ६२। (४) उवणाविही जहा कम्मपगडीसगहणीए रव्वलगसकमे तहा भाणियच्वं । १०६१। 'विसेसपवंचो नहा कम्मपगडिसगहणीए । प० ६३ । इत्यादि। .