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________________ ३३० सप्ततिकाप्रकरण इगु'सट्ठिमप्पमत्तो बंधइ देवाउयस्स इयरो वि । अट्ठावण्णमपुब्यो छप्पण्णं वा वि छब्बीसं ।। ५८ ॥ अर्थ-अप्रमत्तसयत जीव उनसठ प्रकृतियो । बन्ध करता है। यह देवायुका भी बन्ध करता है। तथा अपूर्वकरण जीव अट्ठावन, छापन और छब्बीस प्रकृतियोका बन्ध करता है। विशेषार्थ-पिछली गाथाओंमें किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोका बन्ध नहीं होता इसका मुख्यरूपसे निर्देश किया है। किन्तु इस गाथासे उस क्रमको बदलकर अब यह बतलाया है कि किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है । यह तो पहले। ही बतला आये हैं कि प्रमत्त विरतमें ६३ प्रकृतियोका बन्ध होता है। उनमेसे असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति इन छह प्रकृतियो को घटा कर आहारकद्विक मिला देने पर अप्रमत्त संयतके ५६ प्रकृतियोका बन्ध प्राप्त होता है । यहाँ छह प्रकृतियां तो इसलिये घटाईं क्योकि इनका बंध प्रमत्तसंयत तक ही होता है और आहारकद्विकको इसलिये मिलाया, क्योंकि छठे गुणस्थान तक ये अवन्धयोग्य प्रकृतियां थीं किन्तु सातवेसे इनका बन्ध सम्भव है । यद्यपि ५६ प्रकृतियोमे देवायु भी सम्मिलित है फिर भी ग्रंथकारने 'अप्रमत्तसंयत देवायुका भी बन्ध करता है। इस प्रकार जो पृथक् निर्देश किया है उसका टीकाकार यह अभिप्राय ' बतलाते हैं कि देवायुके बन्धका प्रारम्भ प्रमत्तसंयत ही करता है यद्यपि ऐसा नियम है फिर भी यह जीव देवायुका वन्ध करते हुए (१) गुणसट्ठी अट्ठवण्णा य ॥ निदादुगे छवण्णा छब्बीसा णाम तीस विरममि ॥' पन्च० सप्त० गा० १४-१४४ 'बधा वढवण्णा दुवोस ।' गो० कर्म० गा० १.३॥' , छह प्रकृतियां तो लयतके ५६ प्रकृतिमादा कर आहारकाम और
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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