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________________ २२९ गुणस्थानों में भंगविचार होता है और आयुवन्धके कालमें भी एक ही भग होता है। तथा उपरत वन्ध की अपेक्षा यहाँ चार भंग और होते हैं, क्योंकि चारो गति सम्बन्धी आयुवन्ध के पश्चात् प्रमत्त और अप्रयत्त सयत गुणस्थानोंके प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं है। कुल मिलाकर ये छ भंग हुए। इस प्रकार प्रमत्तसंयतमें छह और अप्रमत्तसयतमें छह भंग प्राप्त होते हैं। आगे अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें आयुका वन्ध तो नहीं होता किन्तु जिसने देवायुका वन्ध कर लिया है ऐसा मनुष्य उपशमश्रेणी पर आरोहण कर सकता है। किन्तु जिसने देवायुको छोड़कर अन्य आयुओंका वन्ध किया है वह उपशमश्रेणि पर आरोहण नहीं करता। कर्मप्रकृतिमें भी कहा है- 'तिसु आउगेसु बढेसु जेण सेदि न आरुहइ । 'चूंकि तीन आयुओंका वन्ध करनेके पश्चात् जीव श्रोणि पर आरोहण नहीं करता। अत उपशमश्रोणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में दो दो भग होते हैं। किन्तु आपकोणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानोमें मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्त्व यही एक भग होता है। तथा क्षीणमोह आदि तीन गुणस्थानोमे भी मनुष्यायुका उदय और मनुष्यायुका सत्व यही एक भंग होता है इस प्रकार किस गुणस्थानमें आयु. कर्मके कितने भग होते हैं इसका विचार किया। इस प्रकार 'वेयणियाउयगोए विभन्न' इस गाथांशका व्याख्यान समाप्त हुआ। ..
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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