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________________ सप्ततिकाप्रकरण जीवकी राग द्वेषरूप परिणतिमें अच्छी तरह घटिन होता है इसलिये इसे ही कर्म कहा है, क्योंकि अपनी इस परिणविके कारण ही जीवको हीन दशा हो रही है। पर श्रात्माको इम परिणतिके कारण कार्मण नामवाले पुदगलरज आत्मासे आकर सम्बद्ध हो जाते है और कालान्तरमें वे वैसी परिणति के होने में निमित्त होते है, इसलिये इन्हें भी धर्म कहा जाता है। इन ज्ञानारणादि कोंके साथ सारी जीवका एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है जिसमें जीव और कर्मका विवेक करना कठिन हो गया है । लक्षभेदसे ही ये जाने जा सकते है । जीवा ल्क्ष्ण चेतना अर्थात् झान दर्शन है और कर्म का रक्ष्ण जद्द अवेतन है । इस प्रकारके कर्मका जिस साहित्यमें सांगोपांग विचार किया गया है से नर्मसाहित्य अ.य आन्तिकशनों ने भी कर्म अस्तित्वको ग्वीकार किया है। विन्तु उनकी अपेक्षा जैन दर्शनमे इस विषयका विस्तृत और स्वतन्त्र वर्ष पाया जाता है। इस हिपर के हनने हैन साहित्यदे बहुत बढ़े भागको रोक रखा है। मूल कर्म साहित्य--+गवान महावीर स्पदेशका स्कल्न करते समय र्भ साहित्यकी स्वतत्र संकलना की गई थी। गणधरोने (पट्टशिप्याने) समस्त पदेशांको बारह हों विभाजित किया था। इनमेंसे दृष्टिबाट नामक बारहवाँ अङ्ग बहुत विशाल था। इसके परिकर्म, सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत और इलिका ये पांच भेद थे। इनमें से पूर्वगतके चौदह भेद थे जिनमेसे आठवें भेदका नाम र्मप्रवाद था। कर्मविषयक साहित्यका इसी में सकलन किया गया था। इसके सिवा अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद इन दो पूर्वोमें भी प्रसंगसे कर्मका वर्णन किया गया था। पूर्वगत कर्म साहित्यके ह्रासका इतिहास-किन्तु धीरे-धीरे कालदोपसे पूर्व साहित्य नष्ट हने लगा। भगवान महावीरके मोक्ष जानेके
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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