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________________ सप्ततिकाप्रकरण उपशामक अपूर्वकरण गुणस्थानके दूसरे भागसे लेकर सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान तकके जीवोंके चार प्रकृतियोका बन्ध, चार या पाँच प्रकृतियोका उदय और नौ प्रकृतियोका सत्त्व होता है। यहाँ इन दोनो स्थानोकी अपेक्षा कुल भंग चार होते हैं-(१) छः प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व। (२) छ. प्रकृतिक वन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्व । (३) चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व तथा (४) चार प्रकृतिक बन्ध, पॉच प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व । यहाँ इतनी विशेषता है कि स्त्यानर्द्धि तीनका उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही होता है, अत. इस गुणस्थान तक निद्रादि पॉचमें से किसी एकका उदय और अप्रमत्तसयत आदि गुणस्थानोमे निद्रा और प्रचला इन दोमें से किसी एकका उद्य कहना चाहिये। किन्तु क्षपकश्रेणोमे कुछ विशेषता है। बात यह है कि क्षपक जीव अत्यन्त विशुद्ध होता है, अतः उसके निद्रा और प्रचला प्रकृतिका उदय नहीं होता और यही सबब है कि क्षपकरणी में पूर्वोक्त चार भंग न प्राप्त होकर पहला और तीसरा ये दो भङ्ग ही प्राप्त होते है। इनमेंसे छह प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व यह पहला भग क्षपक जीवो के भी अपूर्वकरणके प्रथम भाग तक होता है। तथा चार प्रकृतिक बन्ध, चार प्रकृतिक उदय और नौ प्रकृतिक सत्त्व यह भंग क्षपक जीवो के अनिवृत्ति बादरसम्परायके संख्यात भागो तक होता है। यहाँ स्त्यानचित्रिक का क्षय हो जानेसे क्षपक जीवोके आगे नौ प्रकृतियों का सत्त्व नहीं रहता, अत. इन क्षपक जीवोके अनिवृत्तिवादरसम्परायके सख्यात भागोंसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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