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________________ ३४२ ।' सप्ततिकोप्रकरण जाता है तदनुसार गुणश्रेणिके दलिकोका निक्षेप अन्तर्मुहूर्तके उत्तरोत्तर शेष बचे हुए समयोमें होता है अन्तर्मुहूर्तसे ऊपरके समयोमे नहीं होता। उदाहरणार्थ-मान लोगुणश्रेणिके अन्तर्मुहूर्तका प्रमाण पचास समय है और अपूर्णकरण तथा अनिवृत्तिकरण इन दोनोके कालका प्रणाम चालीस समय है। अब जो जीव अपूर्वकरणके पहले समयमै गुणश्रेणिकी रचना करता है वह गुणश्रेणीके सब, समयोंमे दलिकोका निक्षेप करता है। तथा दूसरे समयमें उनचास समयोमे दलिकोका निक्षेप करता है। इस प्रकार जैसे जैसे अपूर्वकरणका काल व्यतीत होता जाता है वैसे वैसे दलिकोका निक्षेप कमती कमती समयोमें होता जाता है। गुणसंक्रम प्रदेशसंक्रमका एक भेद है। इसमे प्रति समय उत्तरोत्तर असख्यात गुणित क्रमसे अवध्यमान अनन्तानुवन्धी आदि अशुभ प्रकृतियोके कर्म दलिकोका उस समय बंधनेवाली सजातीय प्रकृतियोमे सक्रमण होता है। यह क्रिया अपूर्वकरणके. पहले समयसे ही प्रारम्भ हो जाती है। तथा अपूर्वकरणके पहले समयसे ही जो स्थितिवन्ध होता है वह अपूर्व अर्थात् इसके पहले होनेवाले स्थितिबन्धसे वहुत थोड़ा होता है। इसके सम्बन्धमे यह नियम है कि स्थितिवन्ध और स्थितिघात इन दोनोंका प्रारम्भ भी एक साथ होता है और इनकी समाप्ति भी एक साथ होती है इस प्रकार इन पाँच कार्योंका प्रारम्भ अपूर्वकरणमे एक साथ होता है। अपूर्वकरणके समाप्त होने पर अनिवृत्तिकरण होता है। इसमें प्रविष्ट हुए जीवीके जिस प्रकार शरीरके आकार आदिमे फरक दिखाई देता है उस प्रकार उनके परिणामोंमें फरक नहीं होता। अर्थात् समान समयवाले एक साथमें चढ़े हुए जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं। और भिन्न समयवाले
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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