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________________ गुणस्थानों में मंगविचार २२५ असाताका सत्त्वनाश हो जाता है अतः इस गुणस्थानमें उपान्त्य समय तक (१) साताका उदय और साता असाताका सत्त्व तथा (२) असाताका उदय और साता असाताका सत्व ये दो भग प्राप्त होते हैं और अन्तिम समयमें (३) साता का उदय और साताका सत्त्व तथा (४) असाताका उदय और असाताका मत्व ये दो भंग प्राप्त होते हैं। इस प्रकार गुणस्थानोमें वेदनीयके भगो का कथन किया। अब गोत्र कर्मके भगोका विचार करते हैं-गोत्र कर्मके विपयमें एक विशेषता तो यह है कि साता और असाताके समान बन्ध और उदयकी अपेक्षा उच्च और नीच गोत्र भी प्रतिपक्षभूत प्रकृतिया हैं। एक कालमें इनमें से किसी एक का ही बन्ध और एकका ही उदय होता है किन्तु सत्त्व दोनोका एक साथ पाया जाता है । तथा दूसरी विशेषता यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोके उच्चगोत्र की उद्वलना होने पर बन्ध, उदय और सत्त्व एक नीच गोत्रका ही होता है और जिनमे ऐसे अग्निकायिक और वायुकायिक जीव उत्पन्न होते हैं उनके भी कुछ काल तक बन्ध, उदय और सत्त्व नीच गोत्र का ही होता है। अब यदि इन दोनो विशेपताश्रो को ध्यानमे रख कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें भगोका विचार करते है तो निम्न पाच भग प्राप्त होते हैं। यथा-(१) नीचका बन्ध, नीचका उदय तथा नीच और उच्च का सत्त्व (२) नीचका बन्ध, उच्च का उदय तथा नीच और उधका सत्त्व (३) उच्चका बन्ध, उचका उदय तथा उच्च और नीचका सत्व । (४) उच्चका बन्ध, नीचका उदय, तथा उच्च और नीचका सच्च । तथा (५ , नीचका बन्ध, नीचका उदय और नीचका सत्त्व । नीच गोत्रका वन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है, क्योंकि मिश्र आदि गुणस्थानोमें एक उच्च गोत्र का ही
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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