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________________ १४४ सप्ततिकाप्रकरण इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवोमेसे प्रत्येकके छह छह उदयस्थान और उनके भंग वटित कर लेने चाहिये । किन्तु सर्वत्र दोइन्द्रिय जातिके स्थान में तेइन्द्रियोंके तेइन्द्रिय जातिका और चौइन्द्रियोके चौइन्द्रिय जातिका उल्लेख करना चाहिये । इस प्रकार सब विकलेन्द्रियोके ६६ भंग होते हैं । कहा भी है 'तिग तिग दुग चउ छ उ विगलाण छसट्ठि होइ तिरहं पि ।' अर्थात् 'दोइन्द्रिय आदिमेंसे प्रत्येकके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक उदयस्थानो के क्रमशः ३, ३, २, ४, ६ और ४ भंग होते हैं । तथा तीनोके मिलाकर कुल २२४३=६६ भन होते हैं ।' तिर्यंच पंचेन्द्रियोके २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ ये छह उदयस्थान होते हैं । इनमेसे २१ प्रकृतिक उदयस्थानमे तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, पचेन्द्रिय जाति, नस, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्तमेंसे कोई एक, सुभग और दुर्भगमेसे कोई एक, आय र अनादेयमें से कोई एक, यश कीति और यशकीर्ति में से कोई एक इन नौ प्रकृतियोको पूर्वोक्त बाहर ध्रुवोदय प्रकृतियो में मिला देने पर कुल २१ प्रकृतियोका उदय होता है । यह उदयस्थान 'अपान्तरालमें विद्यमान तियंच पचेन्द्रियके होता है। इसके नौ भंग है, क्योकि पर्याप्तक नाम कर्मके उदयमे सुभग और दुर्भगमेसे किसी एकका, आय और अनादेयमे से किसी एकका तथा यशःकीर्ति और यश कीर्तिमेंसे किसी एकका उदय होनेसे २x२x२ - ८ भंग प्राप्त हुए। तथा अपर्याप्तक नाम कर्मके उदयमे दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति इन तीन अशुभ प्रकृतियोका ही उदय होनेसे एक भंग प्राप्त हुआ । इस प्रकार २१ प्रकृतिक उदयस्थानमें कुल नौ भंग होते हैं।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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