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प्रस्तावना
उहरंगे नहीं हुआ। ती नैयायिकोंके
या-साहित्य जैन कर्मवादके
क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और जीके न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पसंतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे। किन्तु इन शिक्षाओंका जनता और साहित्य पर स्थायी असर नहीं हुमा । ___ अजैन लेखकोंने तो नैयायिकोंके कर्मवादका समर्थन किया ही, किन्तु तरकालवी जैन लेखकोंने जो कथा-साहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक कर्मवादका ही समर्थन होता है। चे जैन कर्मवादके श्राध्यात्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये और उनके ऊपर नैयायिक कर्मवादका गहरा रंग चढ़ता गया। अजैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये पुण्य पापके वर्णन करने में दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिकोणसे विचार करते हैं। मजैन लेखकोंके समान जैन लेखक भी बाह्य आधारोंको लेकर चलते हैं। चे जैन मान्यताके अनुसार कर्मों के वर्गीकरण और उनके भवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये । जैन दर्शनमें यद्यपि कर्मोंके पुण्य कर्म और पापकर्म ऐसे भेद मिलते हैं पर इससे गरीवी पापकर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह नहीं सिद्ध होता। गरीब होकर के भी मनुष्य सुखी देखा जाता है और सम्पत्तिवाला होकरके भी वह दुखी देखा जाता है। पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे की जा सकती है गरीबी अमीरीसे नहीं । इसीसे जैनदर्शनमें सातावेदनीय और भसातावेदनीयका फल सुख-दुख बतलाया है अमीरी गरीबी नहीं। जैन साहित्यमें यह दोष बरावर चालू है। इसी दोषके कारण जैन जनताको कर्मको अप्राकृतिक और अवास्तविक उलझनमें फंसना पड़ा है। जब वे कथा ग्रन्थों में और सुभाषितों में यह पढ़ते हैं कि 'पुरुपका भाग्य जागने पर घर बैठे ही रंल मिल जाते हैं और माग्यके
(१) सुभाषितरत्नसन्दोह पृ० ४७ श्लोक २५७ ।: