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________________ दर्शनावरण कर्मके सत्त्वस्थानीका काल ३१ द्वितीय भागमें प्रविष्ट होकर एक समय तक चार प्रकृतियों का बन्ध किया और मर कर दूसरे समय में देव हो गया उसके चार प्रकृतिक वन्धस्थानका जघन्य काल एक समय देखा जाता है । तथा चार प्रकृतिक व स्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणी के पूरे कालका योग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नही होता । तिस पर इस स्थानका बन्ध तो अपूर्वकरणके द्वितीय भागसे लेकर सूक्ष्मसम्पराय के अन्तिम समय तक ही होता है । दर्शनावरण कर्मके सत्त्वस्थान भी तीन ही हैं-नौप्रकृतिक, छ प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । नौं प्रकृतिक सत्त्वस्थानमे दर्शनावरण कर्मकी सब उत्तर प्रकृतियोका सत्त्व होता है । छ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें स्त्यानर्द्वि तीनको छोड़कर शेप छ प्रकृतियों का सत्व होता है और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें निद्रादि पाँचको छोड़कर शेष चार कासव होता है। नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है । छह प्रकृतिक सत्त्वस्थान क्षपक अनिवृत्ति बादरसम्परायके दूसरे भागसे लेकर क्षीणमोह गुणस्थानके उपान्त्य समयतक होता है और चार प्रकृति सत्त्वस्थान क्षीणमोह गुणस्थान अन्तिम समय होता है। नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके कालकी अपेक्षा दो भग हैं- अनादि अनंत और अनादि- सात । इनमे से पहला विकल्प अभव्यो के होता है, क्योकि इनके नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थान का कभी विच्छेद नही पाया जाता। दूसरा विकल्प भव्योके होता है, क्योकि इनके कालान्तर मे इस स्थानका विच्छेद देखा जाता है । यहाँ सादि सान्त यह विकल्प सम्भव नहीं, क्योकि नौ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका विच्छेद क्षपकश्रेणी में होता है परन्तु क्षपकश्रेणीसे जीवका प्रतिपात नहीं होता । छह प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यह स्थान क्षपक अनिवृत्तिके दूसरे भागसे लेकर क्षीणमोहके - उपान्त्य समय तक
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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