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________________ मोहनीयकर्मके सत्तास्थान इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानके माथ रह सकता है। इसके अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्क इन आठ प्रकृतियो का क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। यह स्थान क्षपकश्रेणीके नौवे गुणस्थानमें प्राप्त होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि तेरह प्रकृतिक सन्त्वस्थानसे बारह प्रकृतिक सत्त्वस्थानके प्राप्त होनेमे अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। इसके नपुसक वेढका क्षय हो जाने पर वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योकि वारह प्रकृतिक सत्त्वस्थानसे ग्यारह प्रकृतिक उत्पन्न हुआ। अनन्तर पाठ वर्षके वाद अन्तर्मुहूर्तमें उसने क्षायिक सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया। फिर आयु के अन्तमें मरकर वह तेतीय सागरको श्रायुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इसके बाद तेतीस सागर आयुको पूरा करके एक पूर्व कोटिको श्रायुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ जीवन भर २१ प्रकृतियोंकी सत्ताके साथ रहकर जव जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तव क्षपश्रेणी पर चढकर १३ आदि सत्त्वस्थानों को प्राप्त हुआ। उसके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागर काल तक इकोस प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया जाता है। (१) कषायप्रामृतकी चूर्णिमें १२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका जघन्य काल एक समय बतलाया है। यथा 'णवरि वारसण्ह विहत्ती केवचिर कालादो ? जहण्णेग एगसमओ।' इमको व्याख्या करते हुए जयघवला टीकामें वीरसेन स्वामीने लिखा है कि नपुंसक वेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढा हुआ जीव उपान्त्य समयमें स्त्रीवेद और नपुसकवेदके सब सत्कर्मका पुरुष वेदरूपसे सक्रमण कर देता है और तदनन्तर एक समयके लिये १२ प्रकृतिक सत्त्वस्थानवाला हो जाता है, क्योंकि इस समय नपुंसकवेदकी उदयस्थितिका विनाश नहीं होता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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