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________________ ३५० सप्ततिकाकरण देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रिय आंगोपांग, आहारक आंगोपांग वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, निर्माण और तीर्थकर इन तीस नामकर्मको प्रकृतियोकी वन्धब्युच्छित्ति होती है। तदनन्तर स्थितिखण्डपृथक्त्वके जाने पर अपूर्वकरणका अन्तिम समय प्राप्त होता है। इसमें हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति, छह नोकषायो की उदयव्युच्छित्ति तथा सब कर्मोंकी देशोपशमना, निधत्ति और निकाचना करणोकी व्युच्छित्ति होती है। इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रवेश करता है। इसमें भी स्थितिघात आदि कार्य पहलेके समान होते हैं। अनिवृत्तिकरणके संख्यात बहु भाग कालके बीत जाने पर चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रवृतियोका अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण करते समय चार सज्वलनोमेंसे जिस सज्वलनका और तीन वेदो मेंसे जिस वेदका उदय है उनकी प्रथम स्थितिको अपने अपने उदयकाल प्रमाण स्थापित करता है और अन्य उन्नीस प्रकृ. तियोंकी प्रथम स्थितिको एक आवलिप्रमाण स्थापित करता है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उदयकाल सबसे थोड़ा है। पुरुषवेदका उदयकाल इससे संख्यातगुणा है। संज्वलनक्रोधका उदयकाल इससे विशेष अधिक हैं। संज्वलन मानका उदयकाल इससे विशेष अधिक है। संज्वलनमायाका उदयकाल इससे विशेष अधिक है और संज्वलन लोभका उदयकाल इससे विशेष अधिक है। पञ्चसंग्रहमें कहा भी है'थीअपुमोदयकाला संखेजगुणो उ पुरिसवेयस्स । तत्तो वि विसेसअहियो कोहे तत्तो वि जहकमसो ।'
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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