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________________ वन्धस्थानोमें उदयस्थान और उदय एक प्रकृतिक होता है। यहाँ तीन भंग होते है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संज्वलन क्रोधको छोड़कर शेष तीनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय कहना चाहिये, क्योकि सज्वलन क्रोधके उदयमे सज्वलन क्रोधका बन्ध अवश्य होता है। कहा भी है'जे वेयइ ते बंधई। अर्थात् 'जीव जिसका वेदन करता है उसका वन्ध अवश्य करता है। इसलिये जव संज्वलन क्रोधकी वधन्युच्छित्ति हो गई तो उसकी उदयव्युच्छित्ति भी हो जाती है यह सिद्ध हुआ, अत तीन प्रकृतिक वन्धके समय सज्वलन मान आदि तीनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है ऐसा कहना चाहिये। सज्वलनमानके वधविच्छेद हो जाने पर बंध दो प्रकृतिक और उदय एक प्रकृतिक होता है। किन्तु वह उदय सञ्चलन माया और लोभमेंसे किसी एक्का होता है अत यहाँ दो भग प्राप्त होते हैं । सज्वलन मायाके वन्धविच्छेद हो जाने पर एक सज्वलन लोभका वन्ध होता है और उसीका उदय । अत यहाँ एक भग होता है । यद्यपि यहाँ चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदिमे सज्वलन क्रोध आदिका उदय होता है, अत भगोमे कोई विशेषता नही उत्पन्न होती, फिर भी वन्धस्थानोके भेदसे उनमे भेद मानकर उनका पृथक् कथन किया है। तथा वन्धके अभावमे भी सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयको एक प्रकृतिका उदय होता है इसलिये एक भग यह हुआ। इस प्रकार चार प्रकृतिक वन्धस्थान आदिमे कुल भग ४+३+२+१+१=११ हुए। तदनन्तर सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानके अन्तमै मोहनीयका उदय विच्छेद हो जाता है तथापि उपशान्त मोह गुणस्थानमे उसका सत्त्व अवश्य पाया जाता है।
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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