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________________ ३६८ सप्ततिकाप्रकरण की दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाणकालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है । तथा इन तीनों किट्टियोंके वेदनकालके समय उपरितन स्थितिगत दलिकका गुणसंक्रमके द्वारा प्रति समय सज्वलनमानमें निक्षेप करता है। तथा जब तीसरी किट्टीके वेदनका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब संज्वलन क्रोधके बन्ध, उदय और उदीरणाकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है। इस समय इसके एक समय कम दो आवलिका प्रमाण कालके द्वारा बँधे हुए दलिकोंको छोड़कर शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् मानकी प्रथम किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मानकी प्रथम किट्टीके वेदनकालके भीतर ही एक समय' कम दो आवलिका प्रमाण कालके द्वारा क्रोधसंज्वलनके बन्धका संक्रमण भी करता है । यहाँ दो समय कम दो आवलिका कालतक गुणसंक्रम होता है और अन्तिम समयमे सर्व संक्रम होता है। इस प्रकार मानकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक आवलिका शेप रहने तक वेदना करता है और तत्पश्चात् मानकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक उसका वेदन करता है। तत्पश्चात् तीसरी. किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेष रहनेतक उसका वेदन करता है। इसी समय मानके बन्ध उदय और उदीरणाकी व्युच्छित्ति हो जाती है तथा सत्तामें केवल एक समय कम दो आवलिकाके द्वारा बँधे हुए दलिक' शेष रहते
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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