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________________ सप्ततिकाप्रकरण णिगत सास्वादनसम्यग्दष्टि जीवकी अपेक्षा ये सात प्रकृतिक आदि तीन उदयस्थान कहे हैं। किन्तु जो श्रेणिगत सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव है उसके विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। कुछ प्राचार्योंका कहना है कि जिसके अनन्तानुवन्धीकी सत्ता है ऐसा जीव भी उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है । इन आचार्यों के मतसे अनन्तानुबन्धीकी भी उपशमना होती है। इस मतकी पुष्टि निम्न गाथासे होती है। 'अणदंसणपुंसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । __ अर्थात्-'पहले अनन्तानन्धी कषायका उपशम करता है। उसके बाद दर्शनमोहनीयका उपशम करता है। फिर क्रमश . नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुपवेदका उपशम करता है।' __ और ऐसा जीव श्रेणिसे गिरकर सास्वादन भावको भी प्राप्त होता है। अत इसके भी पूर्वोक्त तीन उदयस्थान होते हैं। किन्तु अन्य आचार्योका मत है कि जिसने अनन्तानन्धी की विसंयोजना कर दी है ऐसा जीव ही उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है, अनन्तानुवन्धीकी सत्तावाला जीव नहीं। इनके मतसे ऐसा (१) दिगम्बर परम्परामे अनन्तानुवन्धीकी उपशमनावाले मतका षटखण्डागम, कषायप्रामृत व उनकी टीकाओंमें उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें इस मतका अवश्य उल्लेख किया है। वहाँ उपशमश्रेणिमें २८, २४ और २१ प्रकृतिक तीन सत्त्वस्थान बतलाये हैं। यथा 'अडचउरेकावीसं उवसमसेढिम्मि।-गो०० गा० ५११ । (२) आ: नि० गा० ११६ । ५० क. ग्रं० गा०६८। ,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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