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मतभेदका उल्लेख
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मग सहगया भवखित्त विवागजीववाग चि । defणयन्नयरुवं च चरिमभवियस्स खीयंति ॥ ६९॥ अर्थ- मनुष्यगति के साथ उदयको प्राप्त होनेवालीं भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियाँ तथा कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र कुल मिला कर ये तेरह प्रकृतियाँ तद्भव मोक्षगामी जीवके अन्तिम समयमें क्षयको प्राप्त होती हैं।
विशेषार्थ- - इस गाथा में बतलाया है। मनुष्यतके साथ उदयको प्राप्त होनेवाली भवविपाकी, क्षेत्रविपाकी और जीवविपाकी तथा कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र इन प्रकृतियो का प्रयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे क्षय होता है । जो प्रकृतियों नरकादि भवकी प्रधानतासे अपना फल देती है वे भवविपाकी कही जाती हैं। जैसे चारो आयु । जो प्रकृतियाँ क्षेत्रकी प्रधाननासे अपना फल देती हैं वे क्षेत्रविपाकी कहलाती हैं। जैसे चारों आनुपूर्वी । जो प्रकृतियाँ अपना फल जीवमे देती हैं उन्हें जीवविपाकी प्रकृतियाँ कहते है। जैसे पाँच ज्ञानावरण आदि । प्रकृतमे भवविपाकी मनुष्यायु है । क्षेत्रविपाकी मनुष्यानुपूर्वी है। जीवविपाकी पूर्वोक्त नामकर्मकी नौ प्रकृतियों हैं। तथा इनके अतिरिक्त कोई एक वेदनीय और उच्चगोत्र ये दो प्रकृतियाँ और हैं।
( 1 ) गोम्मटसार कर्मकाण्डमें एक इसी मतका उल्लेख है कि मनुष्यानुपूर्वी की चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें सस्वव्युच्छित्ति होती है । यथा
'उदयगवार णराणू तेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥ २४० ॥
किन्तु धवला प्रथम पुस्तकमें सप्ततिका के समान दोनों ही मतोंका उल्लेख
किया है। देखो धवला प्रथम पु० पृ० २९४ ।