Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 460
________________ ३७ सप्ततिकाप्रकरण अर्थ -- तद्भव मोक्षगामी जीवके अन्तिम समयमे उत्कृष्टरूपसे मनुष्यानुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियोकी और जघन्यरूपसे बारह प्रकृतियो की सत्ता होती है । विशेपार्थं - पहले यह बतला आये हैं कि जिन प्रकृतियोंका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं होता उनकी सत्त्वव्युच्छित्ति उपान्त्य समय में हो जाती है । मनुष्यानुपूर्वीका उदय प्रथम, दूसरे और चौथे गुणस्थानमें ही होता है अतः सिद्धः हुआ कि इसका उदय योगी अवस्थामें नहीं हो सकता और इसलिये पूर्वोक्त नियम के अनुसार इसकी सत्त्व व्युच्छित्ति अयोगी अव स्थाके उपान्त्य समयमे वतलाई है । किन्तु अन्य आचार्यों का मत है कि मनुष्यानुपूर्वीकी सत्त्वव्युच्छित्ति प्रयोगी अवस्थाके अन्तिम समय में होती है । उपर्युक्त गाथामे इसी मतभेदका निर्देश किया गया है। पूर्वोक्त कथनका सार यह है कि सप्ततिका प्रकरणके कर्ताके मतानुसार मनुष्यानुपूर्वीका उपान्त्य समयमें क्षय हो जाता है इसलिये अन्तिम समयमें उद्यागत वारह या ग्यारह प्रकृतियोका हो सत्त्व पाया जाता है । तथा कुछ अन्य आचार्योंके मतानुसार अन्तिम समयमें मनुष्यानुपूर्वीका सत्त्व और रहता है ' अन्तिम समयमे तेरह या बारह प्रकृतियोका सत्त्व पाया जाता है । अन्य आचार्य मनुष्यानुपूर्वीका सत्त्व अन्तिम समयमें क्यो मानते हैं, आगे अगली गांथा द्वारा इसी बातका उल्लेख करते हैं -

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