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বিকাৰ্য इस प्रकार ये कल तेरह कृतियाँ हैं जिनका जय भवत्तिहिक जीव के अन्तिम समयमें होता है। पूर्वोक्त स्थानमा सार यह है कि मनुष्यानुपूर्वीचा जब भी उदय होता है तो वह मनुष्यगति के साथ ही होता है अतः उसका जय भी मनुष्यगतिके साथ ही होता है। इस व्यवन्याके अनुसार भवसिद्धिको अन्तिम समयमें तेरह या तीर्थकर ऋनिके विना बारह का नय होता है। किन्तु अन्य आचार्योंच्चा नत है कि मनुश्यानुपूर्वीचा अयोगी अवस्था में उदय नहीं होता अत: उसका अगंगी स्वस्थाके आन्न्य समयमें ही न्य हो जाता है। नी प्रकृतियाँ उजयवाली होती हैं उनका न्तिबुक मंकन नहीं होता अतएव उनके दलिक न्वन्वरूपसे अपने अपने उदयके अन्तिम समयमें दिगई देते हैं और इसलिये उनका अन्तिम समयमें जुत्ताविच्छेद होता है यह बात तो युक्त है, परन्तु चारों अनुपूर्वी क्षेत्र विपानी प्रकृतियाँ हैं उनका लक्ष्य केवल अपान्तराल गान में ही होता है इसलिये भवस्य जीवके उनका उच्य सन्भव नहीं और इसलिये मनुष्यानुपूर्वीच अयोना अवन्या अन्तिम नमयने सत्ताविच्छेद न होकर हिचरन ममग्न ही उनका सनाविच्छेद हो जाता है। पहले द्वित्ररन सनयनें जो मचावन रतियांका सचविच्छेन और अन्तिम समयमें जो वाह या तार्थ प्रकृतिक बिना ग्यारह प्रकृतियोंका चरिच्छेद बतलाया है वह इसी मतके अनुसार बतलाया है।
इस बार अगगी वस्याले अन्तिमसमयमें कोचा नमूल नाश हो जानेचे पश्चात् क्या होता है इसका अगली नाथा द्वारा विचार करते हैं
अह सुइयमयलजगसिहरमस्यनिस्वमसहावसिद्धिसुहं । अनिहणमबाबाई तिरयणसारं अणुहवंति ॥ ७० ॥