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सप्ततिकाप्रकरण जिन प्रकृतियोंका अनुदयल्पसे संकेत किया है वे पंतालीस हैं। यथा-औदारिक शरीर, औदारिकवन्धन, औदारिकसंघात, तेजसगरीर. तेजसवन्धन तेजससंघात, कार्मण शरीर, कार्मणबन्धन, कार्मणसंघात, छह संस्थान, छह संहनन, औदारिक प्रांगोपांग वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उपघात, अगुनलघु. प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगवि,प्रत्यक, अपर्याप्त, उच्चास, थिर. अन्थिर शुभ अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, दुर्भग, अनाय, अयश. कीर्ति और निर्माण | इनके अतिरिक्त नीचगोत्र और कोई एक वेदनीय ये दो प्रकृतियां और हैं। इस प्रकार कुल सत्तावन प्रकृतियाँ है जिनका अयोगी अवस्थाके उपान्त्य समयमें न्य हो जाता है। यहाँ वर्णादिक चारके अवान्तर भेद नहीं गिनाये इसलिये सत्तावन प्रकृतियाँ कही है। अब यदि इनमें वर्णादिक चारके स्थानमें उनके अवान्तर भेद सम्मिलित कर दिये जांच तो उपान्त्य समयमें तय होनेवाली प्रकृतियों की संख्या तिहत्तर हो जाती है। यद्यपि गाथामें किसी एक वेदनीयका नामोल्लेख नहीं किया है फिर भी गाथामें जो 'अपि' शब्द आया है उसके वलसे उमका ग्रहण हो जाता है।
अब अयोगिकंवली गुणत्यानमें किन प्रकृवियोंचा उदय होता है यह बतलानेके लिये अगली गाथा कहते हैं___ अन्नयरवेयणीयं मणुयाउय उच्चगोय नव नामे ।
एइ अजोगिजिणो उनोस जहन्न एक्कारं ॥६६॥ __ अर्थ-अयोगी जिन स्कृष्ट से किसी एक वेदनीय, मनुघ्यायु, उच्चगोत्र और नामकर्मकी नो प्रकृतियां इस प्रकार इन बारह प्रकृतियोंका वंदन करते हैं। तथा इनमेंने तीर्थकर प्रकृतिके क्रम हो जाने पर जयलरूपसं ग्यारह प्रकृतियोंका वेदन करते हैं।