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सप्ततिकाप्रकरण
एकेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टि तिर्वच, मनुष्य और देवके होता हैं । यहाँ भङ्ग वीस प्राप्त होते हैं। यथा - जब कोई जीव बाहर, पर्याप्त और प्रत्येक्का बन्ध करता है तब उसके स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका, शुभ और शुभसे किसी एक्का तथा यशःकीर्ति और यश कीर्तिसे किसी एक्का वन्य होनेके कारण धाठ मंग प्राप्त होते हैं । तथा जब कोई जीव वादर, पर्याप्त और साधारण का बन्ध करता हैं तब उसके यशःकीर्तिका बन्ध न होकर केवल यश कीर्तिका ही वन्ध होता है। कहा भी है
'नो सुहुमतिगेण जसं ।'
अर्थात् 'सूक्ष्म. साधारण और अपर्यातक इनमेंसे किसी एकका भी वन्य होते समय यश कीर्तिका बन्ध नहीं होता ।'
a. यहाँ यशःकीति और यश कीर्तिके निमित्तसे तो भंग सम्भव नहीं । अव रहे स्थिर अस्थिर और शुभ अशुभ ये दो युगल सो इनका विकल्पसे चन्ध सम्भव हैं । अर्थात् स्थिरके साथ भी एकवार शुभका और एकवार अशुभका तथा इसी प्रकार अस्थिरके साथ भी एकवार शुभका और एक वार अशुभका बन्ध सम्भव है, अतः यहाँ कुल चार भंग हुए। इसी प्रकार जब कोई जीव सूक्ष्म और पर्याप्तकका बन्ध करता है तब उसके यशः कीर्ति और अयशःकीर्ति इनमेंसे तो एक अयशःकीर्तिका ही बन्ध होता है, किन्तु प्रत्येक और साधारणमेंसे किसी एकका, स्थिर और अस्थिरमेंसे किसी एकका तथा शुभ और अशुभ में से किसी एकका बन्ध होनेके कारण आठ भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार पीस प्रकृतिक वन्यस्थानके कुल भंग बीस होते हैं । तथा छवीस प्रकृतिक वन्वस्थानमें तियंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिजाति, चौहारिक्शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड
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