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सप्ततिकाप्रकरण अपूर्वकरणमें पांच बन्धस्थान होते है-२८,२९,३०,३१ और। इनमेंसे प्रारम्भके चार बन्धस्थान अप्रमत्तसंयतके समान जानना चाहिये, किन्तु जब देवगति प्रायोग्य प्रकृतियोकी वन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है तव केवल एक यश कीर्तिका ही बन्ध होता है अतः यहा १ प्रकृतिक बन्धस्थान भी होता है। ___ यहा उदयस्थान एक ३० प्रकृतिक ही होता है। जिसके छह सस्थान, सुस्वर-दुःस्वर और दो विहायोगतिके विकल्पसे २४ भंग होते हैं। किन्तु कुछ प्राचार्योंका मत है कि उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अपूर्वकरणमे केवल वज्रर्पभनाराच संहननका उदय न होकर प्रारम्भके तीन संहननोमेसे किसी एकका उदय होता है, अतः इन
आचार्यों के मतसे यहां ७२ भंग प्राप्त होते है। इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह गुणस्थानमे भी जानना चाहिये।
यहा सत्तास्थान चार होते हैं-६३, ९२, ९६ और ८८ | इस प्रकार अपूर्वकरणमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोका विचार किया।
अब इसके संवेधका विचार करते हैं-२८, २९, ३० और ३१ प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवके ३० प्रकृतिक उदय रहते हुए क्रमसे ८८, ८६, ६२ और ६३ प्रकृतियोकी सत्ता होती है। तथा एक प्रकृतिका वन्ध करने वाले के ३० प्रकृतियोका उदय रहते हुए चारो सत्तास्थान होते हैं क्योकि जो पहले २८,२६,३० या ३१ प्रकृतिक स्थानका वन्ध कर रहा था उसके देवगतिके योग्य प्रकतिथोकी वन्धव्युच्छित्ति होनेपर एक प्रकृतिका वध होता है किंतु उसके
(१) दिगम्बर परपरामें यही एक मत पाया जाता है कि उपशमश्रेणिमें प्रारंभके तीन सहनोंमेंसे किसी एक संहननका उदय होता है। इसकी पुष्टि गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा नम्बर २६६ से होती है।
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