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सप्ततिका प्रकरण
तित्थगर देव निरयाउगं च तिसु तिसु गईसु बोद्धव्यं ।
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वसेसा पयडीओ हवंति सव्वासु वि गईसु ॥ ६१ ॥
अर्थ - तीर्थकर नाम कर्म, देवायु और नरकायु इनकी सत्ता
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तीन तीन गतियोमे ही होती है। तथा इनके अतिरिक्त शेष सब प्रकृतियोकी सत्ता सभी गतियोमे होती हैं।
विशेषार्थ - देवायुका बन्ध तो तीर्थकर प्रकृतिके वन्धके पहले भी होता है और पीछे भी होता है किन्तु नरकायुके सम्बन्धमे यह नियम है कि जिस मनुष्यने नरकायुका बन्ध कर लिया है वह सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका भी बन्ध कर सकता है । इसी प्रकार तीर्थकरकी सत्ता वाले देव और नारकी नियमसे मनुष्यायुका ही बन्ध करते है यह भी नियम है त तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता तिर्यंचगतिको छोड़कर शेप तीन गतियोंमे ही पाई जाती है । इसी प्रकार नारकी देवायुका और देव नरकायुका चन्ध नहीं करते ऐसा नियम है अत. देवायुकी सत्ता नरकगति को छोड़ कर शेष तीन गतियोंमें पाई जाती है और नरकायुकी सत्ता देवगति को छोड़कर शेष तीन गतियोंमें पाई जाती है यह सिद्ध हुआ । तथा इससे यह भी निष्कर्ष निकल आता है कि इन तीन प्रकृतियो के अतिरिक्त शेप सब प्रकृतियो की सत्ता सब गतियो में होती है । इस गाथाके उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि नाना जीवोकी अपेक्षा नरकगति में देवायुके विना १४७ की सत्ता होती है । तिर्यचगति में तीर्थ+र प्रकृतिके बिना १४७ की सत्ता होती है | मनुष्यगति १४८ की ही सत्ता होती है और देवगतिमे नरकायुक्रे विना १७ की सत्ता होती है ।
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अव उपशमश्रेणि का कथन करते हैं
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