Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 442
________________ सप्ततिकाप्रकरण विशेपार्थ-उपशमणिमें मोहनीयकी प्रकृतियोंका उपशम किया जाता है और आपकोणिमें उनका क्षय किया जाता है। तात्पर्य यह है कि उपशमणिमे प्रकृतियोकी सत्ता तो बनी रहती है किन्तु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दलिकोका अन्तरकरण हो जाता है और द्वितीय स्थितिमें स्थित दलिक संक्रमण आदिके अयोग्य हो जाते हैं इसलिये अन्तमुहूर्त काल तक उनका फल नहीं प्राप्त होता। किन्तु नपक्रोणिमे उनका समूल नाश हो जाता है। कदाचित् यह कहा जाय कि बन्धादिक के द्वारा उनकी पुनः सत्ता प्राप्त हो जायगी मो भी बात नहीं, क्योंकि ऐसा नियम है कि सम्यग्दृष्टिके जिन प्रकृतियोंका समूल क्षय हो जाता है उनका न तो बन्ध ही होता है और न तद्प अन्य प्रकृतियोका सक्रम ही, अतः ऐसी प्रकृतियोंकी पुन. सत्ता, सम्भव नहीं। हाँ अनन्तानुवन्धी चतुष्क इस नियमका अपवाद है इसीलिये उसका क्षय विसयोजना शब्दके द्वारा कहा जाता है। क्षपकोणिका आरम्भ आठ वर्षसे अधिक आयुवाले, उत्तम संहननके धारक, चौथे पाँचवें छठे या सातवे गुणस्थानवर्ती जिनकालिक मनुप्यके ही होता है अन्यके नहीं। सबसे पहले वह अनन्तानुवन्धी चतुतकी विसयोजना करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, और सम्यक्त्वकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है। इसके लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण होते है। इनका कथन पहले कर ही आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणके पहले समयमै अनुदयरूप मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दलिकोका गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वमे निक्षेप किया जाता है। तथा अपूर्वकरणमे इन दोनोका उद्वलना सक्रम भी होता है। इसमें सबसे पहले सबसे बड़े स्थितिखण्डकी उद्वलना की जाती है। तदनन्तर एक एक विशेप कम स्थितिखण्डोकी उद्वलना की जाती है। यह क्रम

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