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दर्शनमोहनीयकी क्षपणा
३५ उसी क्रमसे गिरता है। इसके जहाँ जिस कारणकी व्युच्छित्ति हुई वहाँ पहुंचने पर उस करणका प्रारम्भ होता है। यह जीव प्रमत्त सयत गुणस्थानमें जाकर रुक जाता है। कोई कोई देशविरति और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको भी प्राप्त होता है तथा कोई सास्वादनभावको भी प्राप्त होता है।
साधारणत एक भवमें एक बार उपशमश्रेणिको प्रात होता है। कदाचित् कोई जीव दो वार भी उपशमश्रेणिको प्राप्त होता है इससे अधिक बार नहीं। जो दो बार उपशमणिको प्राप्त होता है उसके उस भवमें क्षपकणि नहीं होती। जो एक बार उपशमणिको प्राप्त होता है उसके क्षपकोणि होती भी है। ___ यद्यपि ग्रन्थकारने मूल गाथामें अनन्तानुवन्धीकी चार और दर्शनमोहनीयकी तीन इन सात प्रकृतियोका उपशम कहाँ और किस क्रमसे होता है इतना ही निर्देश किया है पर प्रसगसे यहाँ अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना और चरित्र मोहनीयकी उपशमनाका भी विवेचन किया गया है। इस प्रकार उपशमश्रोणिका कथन समाप्त हुआ।
अब क्षपकरणिके कथन करनेकी इच्छासे पहले क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति कहाँ किस क्रमसे होती है इसका निर्देश करते हैं
पढमकसायचउक्कं एत्तो मिच्छत्तमीससम्मत्तं ।
अविरय देसे विरए पमत्ति अपमत्ति खीयंति ॥६३।। अर्थ-अविरतसम्यदृष्टि देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानोमेंसे किसी एकमे अनन्तानुवन्धी चारका और तदनन्तर मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वका क्रमसे क्षय होता है।