Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 445
________________ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा ३६३ जव यह जीव सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिखंडकी उत्कीरणा कर चुकता है तब उसे कृतकरण कहते हैं । इस कृतकरणके काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारो गतियोंमेंसे परभवसम्बन्धी के अनुसार किसी भी गतिमें उत्पन्न होता है । इस समय यह शुक्ल लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याको भी प्राप्त होता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीयकी क्षमरणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारो गतियोमे होती है । कहा भी है'पट्टवगो उ मणूसो निट्टवगो चउसु वि गईसु ॥' अर्थात्- 'दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ मनुष्य ही करता है किन्तु उसकी समाप्ति चारो गतियो में होती है ।' यदि बद्धायु जीव क्षपक शिका प्रारम्भ करता है तो अनन्तानुवन्धी चतुष्कका क्षय हो जानेके पश्चात् उसका मरण होना भी सम्भव है । उस अवस्था में मिथ्यात्वका उदय हो जानेसे यह जीव पुन अनन्तानुबन्धीका बन्ध और सक्रमद्वारा मंचय करता है क्योंकि मिथ्यात्वके उदयमें अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नियमसे पाया जाता है । किन्तु जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है वह पुन अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सचय नहीं करता । सात प्रकृतियोका क्षय हो जाने पर जिसके परिणाम नहीं बदले हैं वह मरकर नियमसे देवोमे उत्पन्न होता है किन्तु जिसके परिणाम बदल जाते हैं वह परिणामानुसार अन्य गति में भी उत्पन्न होता है । वद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता तो सात प्रकृतियोका क्षय होने पर वह वहीं ठहर जाता है चारित्रमोहनीयके क्षयका यत्न नहीं करता । जो वद्वायु जीव सात प्रकृतियोका क्षय करके देव या नारकी होता है वह नियमसे तीसरी पर्यायमे मोक्षको प्राप्त होता है और जो मनुष्य या तिर्यच होता है वह असख्यात वर्षकी

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