Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 451
________________ ३६९ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा हैं शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् मायाकी प्रथम किट्टी की दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मानके वन्धादिश्के विच्छिन्न हो जाने पर उसके दलिकका एक समय कम दो श्रावलिकाकालमें गुणसक्रमके द्वारा मायामें निक्षेप करता है। मायाकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक आवलिका शेप रहने तक वेदन करता है तत्पश्चात् मायाकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका एक समय अधिक एक आवलिका प्रमाण कालके शेप रहनेतक वेदन करता है । तत्पश्चात् मायाकी तीसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमे स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और उसका एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेप रहने तक वेदन करता है। इसी समय मायाके वन्ध, उदय और उदीरणाकी एक साथ व्युच्छित्ति हो जाती है तथा सत्तामें केवल एक समय कम दो श्रावलिकाके द्वारा बँधे हुए दलिक शेष रहते हैं शेषका अभाव हो जाता है। तत्पश्चात् लोभकी प्रथम किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है और एक अन्तर्मुहूर्त कालतक उसका वेदन करता है। तथा मायाके वन्धादिकके विच्छिन्न हो जाने पर उसके नवीन बंधे हुए दलिकका एक समय कम दो आवलिका कालमें गुणसक्रमके द्वारा लोभमे निक्षेप करता है। तथा मायाकी प्रथम किट्टीका एक समय अधिक एक श्रावलिका कालके शेष रहने तक ही वेदन करता है। तत्पश्चात् लोभकी दूसरी किट्टीकी दूसरी स्थितिमें स्थित दलिकका अपकर्पण करके प्रथम स्थिति करता है और एक समय अधिक एक आवलिका कालके शेष रहने तक उसका वेदन

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