Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 453
________________ चारित्रमोहनीयकी क्षपणा ३७१ विच्छेद तथा मोहनीयका उदय और सत्ताविच्छेद हो • जाता है। ___अब पूर्वोक्त अर्थका सकलन करनके लिये आगेकी गाया कहते हैं पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए । मायं च छुहह लोहे लोहं सुहुमं पि तो हणइ ॥६४॥ अर्थ-पुरुपवेटका क्रोध, क्रोधका मानमे, मानका मायामें मोर मायाका लोभमें सक्रमण करता है। तथा सूक्ष्म लोभका स्वोदयसे घात करता है। विशंपार्थ -पुरुपवेदकी वन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर उनका गुण सक्रमणके द्वारा सज्य जन क्राधमें मक्रमण करता है । सज्वलन क्राधके बन्धादिकको व्युच्छित्ति हा जाने पर उसका सज्वलन मानमें सक्रमण करता है । सचलन मानके बन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर उसका सज्वलन मायाम मंक्रमण करता है। सज्जलन मायाके भी बन्धादिक की व्युच्छित्ति हो जाने पर उनका सज्वलन लोभमें सक्रमण करता है। तथा सज्वलन लोभके वन्धादिककी व्युच्छित्ति हो जाने पर मूक्ष्म किट्टीगत लोभका विनाश करता है। लोभका पूरी तरहसे तय हो जाने पर तदनन्तर समयमें क्षीणकपाय होता है। इसके क्षीणकपायके कालके बहुभागके व्यतीत होनेतक शेप कर्मोके स्थितिघात आदि कार्य पहलेके समान चालू रहते हैं। किन्तु क्षाणकपायके कालका जब एक भाग शेष रह जाता है तब (१) 'कोह च छुहइ माणे माण मायाए णियमा छुहह । माय च छुहर लोहे पडिलोमो संकयो त्यि ।।' क. पा. (क्षपणाधिकार )

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