Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 454
________________ ३७२ सप्ततिकाप्रकरण ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार, अन्तरायकी पाँच और निद्राद्विक इन सोलह प्रकृतियो की स्थितिका सर्वापवर्तनाके द्वारा अपवर्तन करके उसे क्षीण कषायके शेष रहे हुए कालके बरावर करता है । केवल निद्राद्विककी स्थितिको स्वरूपकी अपेक्षा एक समय कम रहता है । सामान्य कर्मकी अपेक्षा तो इनकी स्थिति शेष कर्मों के समान ही रहती है। क्षीणकपायके सम्पूर्ण काल की अपेक्षा यह काल यद्यपि उसका एक भाग है तो भी उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है । इनकी स्थिति क्षीणकपायके कालके बरावर होते ही इनमें स्थितिघात आदि कार्य नहीं होते किन्तु शेप कर्मों के होते हैं । निद्राद्विकके विना उपर्युक्त शेप चौदह प्रकृतियों का एक समय अधिक एक श्रावलि कालके शेप रहने तक उदय और ' उदीरणा दोनों होते हैं । तदनन्तर एक आवलि काल तक केवल उदय ही होता है । क्षीणक पायके उपान्त्य समयमें निन्द्राद्विकका स्वरूप सत्ताकी अपेक्षा क्षय करता है और अन्तिम समय में शेष चौदह प्रकृतियोका क्षय करता है । इसके अनन्तर समयमे यह जीव सयोगिकेवली होता है । वह लोकालोकका पूरी तरह ज्ञाता द्रष्टा होता है । जगमे ऐसा कोई पदार्थ नहीं, न हुआ और न होगा जिसे जिनदेव नहीं जानते हैं। अर्थात् वे सबको जानते और देखते हैं । इस प्रकार सयोगिकेवली जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृसे कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार करते हैं । यदि उनके वेदी आदि तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति से अधिक होती है तो उनकी स्थिति आयुर्म के वरावर करने के लिये अन्तमें वे समुद्धात करते हैं और यदि शेष तीन कर्मोंकी स्थिति आयुकर्म के बराबर होती है तो वे समुद्धात नहीं करते । मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंका शरीर से बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है। इसके

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