Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 439
________________ चरित्रमोहनीयकी उपशमना ३५७ यहाँ जघन्य रसवाले जितने परमाणु होते हैं उनके समुदाय को एक वर्गणा कहते हैं। एक अधिक रसवाले परमाणुओंके ममुदायको द सरी वर्गणा कहते हैं। दो अधिक रसवाले परमाणोके समुदायको तीसरी वर्गणा कहते है। इस प्रकार कुल वर्गणाए सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण या अभव्योसे अनन्तगुणी प्राप्त होती हैं। इन सब वर्गणाओके समुदायको एक स्पर्धक कहते हैं। दूसरे आदि स्पर्धक भी इसी प्रकार प्राप्त होते है। किन्तु इतनी विशेपता है कि प्रथम आदि स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं दूसरे आदि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके प्रत्येक वर्गमे सब जीवोसे धनन्तगुणे रसके अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। और फिर अपनेअपने स्पर्द्ध ककी अन्तिम वर्गणा तक रसका एक एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ता जाता है। ये सव स्पर्धक संसारी जीवोंके प्रारम्भसे ही यथायोग्य होते हैं इसलिये इन्हें पूर्वस्पर्द्धक कहते हैं। किन्तु यहाँ पर उनमेसे दलिकोको ले लेकर उनके रसको अत्यन्त हीन कर देता है। इसलिये उनको अपूर्वस्पर्धक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि ससार अवस्थामे इम जीवने बन्धकी अपेक्षा कभी भी से स्पर्धक नहीं किये थे किन्तु विशुद्धिके प्रकर्पसे इस समय करता है इस लिये ये अपूर्वस्पर्धक कहे जाते हैं। यह क्रिया पहले त्रिभागमें की जाती है। दूसरे त्रिभागमें पूर्णस्पर्द्ध को और अपूर्णस्पर्द्वकोमेंसे दलिकोको ले लेकर प्रति समय अनन्त किट्टियाँ करता है। अर्थात् पूर्णस्पर्द्ध को और अपूर्णस्पर्द्ध कोंसे वर्गणाओको ग्रहण करके और उनके रसको अनन्तगुणा हीन करके रसके अविभाग प्रतिच्छेदोमें अन्तराल कर देता है । जैसे, मानलो रसके अविभाग प्रतिच्छेद सौ, एकसौ एक और एकसौ दो थे अब उन्हें घटा कर क्रमसे पॉच, पन्द्रह और पञ्चीस कर दिया। इसीका नाम किटटी

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