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सप्ततिकाप्रकरण होती है उनकी पुनः सत्ता नहीं प्राप्त होती । अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना अविरत सम्यग्वष्टि गुणास्थानसे लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक किसी एक गुणस्थानमें होती है। चौथे गुणम्थानमें चागं गतिके जीव अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करते हैं। पाँचवें गुणस्थानमें तिथंच और मनुष्य अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं । तथा छठे और सातवें गुणस्थानमे मनुष्य ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं। इसके लिये भी पहलेके समान तीन करण किये जाते हैं। इतनी विशेषता है कि विसंयोजनाके लिये अन्तरकरणकी आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आवलि प्रमाण दलिकोको छोड़कर ऊपरके सव दृलिकोका अन्य मजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण करके विनाश कर दिया जाता है और आलि प्रमाण दलिकाका वेद्यमान प्रकृतियों में सक्रमण करके उनका विनाश कर दिया जाता है।
इस प्रकार अनन्तानन्धीकी उपशमना और विसंयोजनाका विचार करके अब दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमनाका विचार करते हैं। इस विपयमें यह नियम है कि मिथ्यात्वका उपशम तो मिथ्याष्टि और सम्यग्वष्टि जीव करते हैं किन्तु
सारमें भी अनन्तानुवन्धीके विसंयोजनवाले मतका ही उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं किन्तु कर्मप्रकृतिके समान कसायपाहुडकी चूर्णिमें भी अनन्तानुवन्धीके उपशमका ग्पष्ट निषेध किया है। हॉ दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिकामें भी उपशमवाला मत पाया जाता है। और गोम्मप्सार कर्मकाण्डसे इस बातका अवश्य पता लगता है कि वे अनन्तानन्धीके उपशमवाले मतसे परिचित थे।
१- दिगम्बर परम्परा के सभी कार्मिक प्रन्यों में इस विषयमें जो निर्देश किया है उसका भाव यह है कि मिथ्याटि.एक मिथ्यात्वं का, मिथ्याल और