Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 427
________________ अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना ३४५ कोका उपशम किया जाता है, पहले ममयमें थोड़े दलिकोंका उपशम किया जाता है। दूसरे समयमें उससे अमख्यातगुणे दलिकोका उपशम किया जाता है। तीसरे समयमे इससे भी अमख्यानगुणे दलिकोका उपशम किग जाता है अन्तर्मुहूर्त कालतक इसी प्रकार असत्यातगुणं अमल्यातगुणे दलिकोका प्रति ममय उपशम किया जाता है। इतने समयमे समस्त अनतानुवन्धी चतुप्फका उपशम हो जाता है । जिम प्रकार धूलिको पानीसे सींच सींच कर दुरमटसे कूट देने पर वह जम जाती है उसी प्रकार कर्मरज भी विशुद्विरूपी जल से सींच मींच कर अनिवृत्तिकरणरूपी दुरमटके द्वारा कूट दिये जाने पर सक्रमण, उदय, उदीरणा निधत्ति और निकाचनाके प्रायोग्य हो जाती है। इसे ही अनन्तानुवन्धीका उपशम कहते हैं। किन्तु अन्य आचार्योका मत है कि अनन्तानुवन्धी चतुष्कका उपशम न होकर विसयोजना ही होती है। विसयोजना क्षपणाका दूसरा नाम है। किन्तु विसयोजना और क्षपणामे केवल इतना अन्तर है कि जिन प्रकृनियोकी विसयोजना होती है उनकी पुन मत्ता प्राप्त हो जाती है। किन्तु जिन प्रकृतियोंकी नपणा १कर्मप्रकृतिमें अनन्तानुवन्धीकी उपशमनाका स्पष्ट निषेध किया है। वहाँ वतलाया है कि चाये, पाँचवें और छठे गुणस्थानवर्ती ययायोग्य चारों गतिक पर्याप्त नाव तीन करणोंके द्वारा अनन्तानुवन्धी चतुष्कका विसयोजन करते हैं । किन्तु विसयोजन करते समय न तो अन्तरकरण होता है और न अनन्तानुवन्धी चतुष्कका उपशम ही होता है बठगइया पजत्ता तिन्नि वि सयोजणा वियोजति । करणेहि नाहिं सहिया नारकरयां उत्समो वा ।' दिगम्बर परम्परामें कपण्ययाहुद, उसकी चूर्णि, पट्खडागम और लब्धि

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