Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 426
________________ ३४४ - सप्ततिकाप्रकरण करण किया जाता है उनके दलिकोंकी लड़ीको मध्यसे भंग कर दिया जाता है। इससे दलिकोकी तीन अवस्थाएँ हो जाती हैंप्रथम स्थिति, सान्तर स्थिति और उपरितन या द्वितीय स्थिति । प्रथम स्थितिका प्रमाण एक प्रावलि था एक अन्तर्महूर्त होता है। इसके बाद सान्तर स्थिति प्राप्त होती है। यह दलिकोसे शून्य अवस्था है। इसका भी प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद द्वितीय स्थिति प्राम होती है। इसका प्रमाण दलिकोकी शेप स्थिति है। अन्तरकरण करनेके पहले दलिकोकी लड़ी ०००००००००००००००० इस प्रकार अविच्छिन्न रहती है। किन्तु अन्तरकरण कर लेने पर उसकी अवस्था ०००००००००००००० इस प्रकार हो जाती है। यहाँ मध्यमे जो शून्य स्थान दिखाई देता है वहाँ के कुछ दलिकोको यथा सम्भव बंधनेवाली अन्य सजातीय प्रकृतियोमे मिला दिया जाता है। इस अन्तरस्थान से नीचेकी स्थितिको प्रथम स्थिति और ऊपरकी स्थितिको द्वितीय स्थिति कहते हैं। उदयवाली प्रकृतियोंके अन्तर करण करनेका काल और प्रथम स्थितिका प्रमाण समान होता है। किन्तु अनुदयवाली प्रकृतियोकी प्रथम स्थितिके प्रमाणसे अन्तरकरण करनेका काल बहुत बड़ा होता है। अन्तरकरण क्रियाके चालू रहते हुए उदयवाली प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिका एक एक दलिक उदयमे आकर निर्जीर्ण होता जाता है और अनुदयवाली प्रकृतियोकी प्रथम स्थितिके एक एक दलिकका उदयमे आनेवाली सजातीय प्रकृतियोमे स्तिवुक संक्रमणके द्वारा संक्रम होता रहता है। प्रकृतमे अनन्तानुबन्धीके उपशमका अधिकार है, किन्तु यहा इसका उदय नहीं है अतः इसके प्रथम स्थितिगत प्रत्येक दलिकका भी स्तिवुक सक्रमणके द्वारा पर प्रकृतियोमे सक्रमण होता रहता है। इस प्रकार अन्तरकरणके हो जाने पर दूसरे समयमे अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी द्वितीय स्थितिवाले दलि

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