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गति आदिमें प्रकृतिसद्भावनाकी सूचना ३३५ एसो उ बंधसामित्रोधो गइयाइएसु वि तहेव । -
ओहायो साहिज्जा जत्थ जहा पगडिसम्भावो ॥ ६०॥ अर्थ-यहाँ तक ओघसे बन्धस्वामित्वका कथन किया । गति आदिक मार्गणाओंमें भी जहाँ जितनी प्रकृतियोका बन्ध होता हो तदनुसार वहाँ भी ओघके समान बन्धस्वामित्वका कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-पिछली चार गाथाओंमें किस गुणस्थानवाला कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करता है और कितनी प्रकृतियोका बन्ध नहीं करता इसका विधि और निषेध द्वारा कथन किया है । इससे यद्यपि आंघसे बन्ध स्वामित्वका ज्ञान हो जाता है फिर भी गति
आदि मार्गणाओमे कहा कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है और कितनी प्रकृतियोका वन्ध नहीं होता इसका ज्ञान होना शेष रह जाता है। ग्रन्थकारने इसके लिये इतनी ही सूचना की है कि जहाँ जितनी प्रकृतियोका बन्ध होता हो इसका विचार करके ोधके समान मार्गणास्थानोमे भी वन्धस्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये । सो इस सूचनाके अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि यहाँ मार्गणास्थानोंमें भी वन्धका विचार किया जाय । किन्तु तीसरे वर्म ग्रन्थमे इसका विस्तार से विचार किया है। जिज्ञासु जन उसे वहाँसे जान सकते हैं अतः यहाँ इसका विचार नहीं किया जाता । गाथामें जो ओघ पद आया है वह सामान्यका पर्यायवाची है और इससे स्पष्टतः गुणस्थान की सूचना मिलती है क्योंकि सर्वप्रथम गुणस्थानोंमें ही बन्धस्वामित्वका विचार कर आये हैं।
अब किस-गतिमें कितनी प्रकृतियोंकी सत्ता होती है इसका कथन करनेके लिये आगे की गाथा कहते हैं।