Book Title: Saptatikaprakaran
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 421
________________ अनन्तानुवन्धीकी उपशमना .३३६ अनन्त भागहानि, असख्यात भागहानि, सख्यातभागहानि, सख्यातगुण हानि, असख्यात गुणहानि और अनन्तगुणहानि ये हानिरूप छह स्थान हैं। तथा अनन्त भागवृद्धि, असख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्वि, सख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगण वृद्धि ये वृद्विरूप छह स्थान हैं। शिय यह है कि जब हम एक जीवको अपेक्षा विचार करते हैं तब पहले समयके परिणामोसे दूसरे समयके परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए प्राप्त होते हैं इत्यादि । और जब नाना जीवोंकी अपेक्षा विचार करते हैं तब एक समयवर्ती नाना जोवोंके परिणाम छह स्थान पतित प्राप्त होते हैं। तथा यथाप्रवृत्तकरणके पहले समयमें नाना जीवोकी अपेक्षा जितने परिणाम होते हैं, उनसे दूसरे समयमें विशेष अधिक होते हैं । दूसरे समयसे तीसरे समयमें और तीसरे समयसे चौथे समयमें इसी प्रकार अन्त तक विशेप अधिक विशेष अधिक परिणाम होते हैं। इसमें भो पहले समयमें जघन्य विशुद्धि सबसे थाड़ी होती है। इससे दूसरे समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इससे तीसरे समयमें जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार यथाप्रवृत्त करणके सख्यातवें भागके प्राप्त होने तक यही क्रम चालू रहता है। पर यहाँ जो जघन्य विशुद्धि प्राप्त होती है उससे पहले समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगणी होती है। तदनन्तर पहले ममयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे यथाप्रवृत्तकरणके सख्यातवें भागके अगले समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। पुन इससे दूसरे समयकी उत्कृष्ट विशुद्वि अनन्तगुणी होती है। पुन इससे यथाप्रवृत्त करणके सख्यातवें भागके आगे दूसरे समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार यथाप्रवृत्त करणके अन्तिम समयमे जघन्य विशुद्विस्थानके प्राप्त होने तक ऊपर और

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