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छोपाल से मीसो तेवरण देसविर
सप्ततिका प्रकरण
विरयसम्मो तियालपरिसेसा । विरओ सगवण्णसेसाओ ॥५७॥
अर्थ - - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव छियालीसके बिना ७४ का, अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तेतालीस के बिना ७७ का, देशविरत त्रेपनके विना ६७ ६ा और प्रमत्तविरत सत्तावन के बिना ६३ का बन्ध करता है |
विशेषार्थ - -- इस गाथामे मिश्रादि चार गुणस्थानोंमें, कहाँ कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है इसका निर्देश किया है । आगे उसका विस्तार से खुलासा करते हैं। अनन्तानुबन्धीके उदयसे २५ प्रकृतियोंका बन्ध होता है परन्तु मिश्र गुणस्थानमे अनन्तानुवन्धीका
होता नहीं. यहाँ बन्धमें २५ प्रकृतियाँ और घट जाती हैं । वे २५ प्रकृतियाँ ये हैं—स्त्यानर्द्वित्रिक, अनन्तानुवन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, तिर्यंचायु, मध्यके चार सम्थान, मध्यके चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दु.स्वर, अनादेय और नीचगोत्र । साथ ही यह नियम है कि मिश्र गुणस्थान मे किसी भी आयुका वन्ध नहीं होता । इसलिये यहाँ मनुष्या और देवायु ये दो आयु और घट जाती है । नरकायु की बन्धव्युच्छित्ति पहले और तिर्यचायुकी बन्धव्युच्छिति दूसरे में हो जाती है अत यहाँ इन दो आयुमो के घटनेका प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार साम्बादन में नहीं बधनेवाली १६ प्रकृतियों में इन २५+२= २७ प्रकृतियोके मिला देने पर ४६ प्रकृतियाँ होती हैं जिनका मिश्र गुणस्थानमे बन्ध नही होता ।
(१) 'चोहारी सगसयरी । सतट्टी तिगसट्ठी ॥ पञ्च० सप्त० गा० १४३ | चउसत्ततरि सर्गाट्ट तेी ॥ - गो० कर्म० गाथ १०३ ।