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गुणस्थानोमे प्रकृतिबन्ध
३२७ पाँच वन्धन और पाँच सघातको अलग नहीं गिनाया, इसलिये १४८ मैसे इन दसके घट जानेसे १३८ रही। वर्णादिक चारके अवान्तर भेद २० हैं किन्तु यहाँ अवान्तर भेदोकी विवक्षा नहीं की गई है अत १३८ मेंसे २०-४=१६ के घटा देने पर १२२ रहीं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनो बन्धप्रकृतियाँ नहीं है, क्योकि सम्यक्त्व गुणके द्वारा ही जीव मिथ्यात्वदलिकके तीन भाग कर देता है जो अत्यन्त विशुद्ध होता है उसे सम्यक्त्व मन्ना प्राप्त होती है । जो कम विशुद्ध होता है उसे सम्यग्निथ्यात्व सजा प्राप्त होती है और इन दोनोके अतिरिक्त शेप भाग मिथ्यात्व कहलाता है। अत १२२ मेमे इन दो अवन्ध प्रकृतियोंके घट जानेसे वन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ रहती हैं। किन्तु तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्व गुणके नाथ होता है और आहारकद्विकका बन्ध संयमगुणके माथ होता है, अत मिथ्यात्व गुणस्थानमे इन तीन प्रकृतियोका बन्ध न होकर शेष ११७ प्रकृतियोका बन्ध होता है। मास्वादन गुणस्थानमें १०१ प्रकृतियोका बन्ध होता है गाथामे जो यह कहा है उसका आशय यह है कि मिथ्यात्व गुणके निमित्तसे जिन मोहल प्रकृतियोका बन्ध मिथ्यात्वमें होता है उनका वध सास्वादनमें नहीं होता। वे सोलह प्रकृतियाँ ये है-मिथ्यात्व, नपुंमकवेद, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु, एकेन्द्रिय जाति, दो इन्द्रिय जाति, तीन इन्द्रिय जाति, चार इन्द्रिय जाति, , हुण्डसंस्थान, सेवात संहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्तक । अत मिथ्यात्वमे वधनेवाली ११७ प्रकृतियोंमेंसे उक्त १६ प्रकृतियोके घटा देने पर साम्वादनमें १०१ का बन्ध होता है।