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सप्ततिकाप्रकरण है। सूक्ष्मसम्पराय जीव १७ का वध करता है। तथा मोहरहित ( उपशान्त मोह और क्षीणमोह ) जीव और सयोगिकेवली एक साता प्रकृति का बन्ध करता है।
विशेषार्थ-यद्यपि अपूर्वकरणमे २६ से कमका बन्ध नहीं होता फिर भी इसके अन्त समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चारका बन्धविच्छेद होकर अनिवृत्तिकरणके पहले भाग में २२ का वन्ध होता है। तथा इसके पहले भागके अन्तमे पुरुष वेदका, दूसरे भागके अन्तमे क्रोधसंज्वलनका तीसरे भागके अन्तमे मानसंज्वलन का, चौथे भागके अन्तमें मायासंज्वलनका वन्धविच्छेद हो जाता है इसलिये दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें भागमें क्रमसे इसके २१, २०, १९ और १८ प्रकृतियोका बन्ध होता है । बन्ध की अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके पांच भाग हैं। इसलिये पांचवे भागके अन्तम जब लोभ संज्वलनका बन्धविच्छेद होता है तब इस गुणस्थानवाला जीव सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवाला हो जाता है, अतः इसके १७ प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है। किन्तु इस गुणास्थानके अन्तमे ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की चार, अन्तराय की पाँच, यशःकोर्ति और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोका बन्धविच्छेद हो जाता है, अतः उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली जीव एक सातावेदनीय का बन्ध करते है। किन्तु सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे साताका भी बन्धविच्छेद हो जाता है इसलिये अयोगिकेवली बन्धके कारणोंका अभाव हो जानेसे कर्मवन्धसे रहित हैं। यद्यपि यह 'बात उक्त गाथामें नहीं बतलाई तो भी उक्त गाथामें जो यह निर्देश किया है कि एक साताका बन्ध मोहरहित और सयोगिकेवली जीव 'करते है, इससे बन्धके मुख्य कारण कपाय और योगका अयोगिकेवली गुणस्थानमें अभाव होनेसे जाना जाता