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आठ अनुयोगोंमें उक्त कथनकी प्रतिज्ञा ३१९ अब ग्रन्थकार बन्धादिस्थानोके आठ अनुयोग द्वारोमे कथन करनेकी सूचना करनेके लिये आगेकी गाथा कहते हैं
इय कम्मपगइठाणाइ सुगु बंधुदयसंतकम्माणं । गइआइएहिं अहसु चउप्पगारेण नेयाणि ॥५३॥
अर्थ-ये पूर्वोक्त वन्ध, उदय और सत्तासम्बन्धी कर्मप्रकृतियोंके स्थान सावधानीपूर्वक गति आदि मार्गणास्थानोंके साथ आठ अनुयोग द्वारोमें चार प्रकारसे जानना चाहिये।
विशेषार्थ - यहाँ तक ग्रन्थकारने ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंकी मूल और उत्तर प्रकृतियोके वन्ध, उदय और सत्तास्थानोका सामान्यरूपसे तथा जीवस्थान, गुणस्थान, गति
और इन्द्रियमार्गणामे निर्देश किया । किन्तु इस गाथामे उन्होंने गति आदि मार्गणाओके साथ आठ अनुयोगद्वारोंमें उनको घटित करनेकी सूचना की है। साथ ही उन्होंने केवल प्रकृतिरूपसे घटित करनकी सूचना नहीं की है, किन्तु प्रकृतिके साथ स्थिति अनुभाग और प्रदेशरूपसे भी घटित करनेकी सूचना की है। बात यह है कि ये वन्ध, उदय और सत्तारूप सब कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे चार चार प्रकारके हैं। जिस कर्मका जो स्वभाव है वही उसकी प्रकृति है। यथा नानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत करनेका है आदि । विवक्षित कर्म जितने कालतक आत्मासे लगे रहते हैं उतने कालका नाम स्थिति है। कर्मों में जो फल देनेकी, हीनाधिक शक्ति पाई नाती है उसे अनुभाग कहते हैं। तथा कर्मदलकी प्रदेश संज्ञा है। मार्गण शब्दका अर्थ अन्वेषण करना है, अत यह अर्थ हुआ कि जिनके द्वारा या जिनमें जीवोका अन्वेषण