________________
३२४
सप्ततिकाप्रकरण सवाल यह था कि ग्रन्थकारन वन्धस्थान और सत्तास्थानोके साथ उदयस्थानोका और इन सबके संवेधका तो विचार किया पर उदीरणास्थानोको क्यो छोड़ दिया। इसी सवालको ध्यानमें रखकर ग्रन्थकार ने उक्त गाथाका निर्देश किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन ४१ प्रकृतियोके कारण जो थोड़ा बहुत उदयसे उदीरणामें अन्तर आता है उसे सम्हालते हुए उदीरणाका कथन उदयके समान ही करना चाहिये।
अब आगे जिन ४१ प्रकृतियोमे विशेषता है उनका निर्देश करनेके लिये आगेकी गाथा कहते है
नाणंतरायदसगं देसणनव वेयणिज मिच्छत्तं । सम्मत्त लोभ वेयाउगाणि नव नाम उच्चं च ॥५५॥
अर्थ - ज्ञानावरण और अन्तरायकी दस दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, लोभ संज्वलन, तीनवेद, चार घायु, नाम कर्मकी नौ और उच्चगोत्र ये इकतालीस प्रकृतियां हैं जिनके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा विशेषता है।
विशेषार्थ-ज्ञानावरण की पांच, अन्तरायकी पांच और दर्शनावरणकी चार इन चौदह प्रकृतियोकी क्षीणमोह गुणस्थानमें एक आवलि काल शेप रहने तक उदय और उदीरणा बराबर होती रहती है। परन्तु एक आवलि कालके शेप रह जाने पर तदनन्तर उक्त १४ प्रकृतियोका उदय ही होता है। उदीरणा नहीं होती, क्योकि "उदयावलिगत कर्मदलिक सब करणोके अयोग्य हैं' इस नियमके अनुसार उनकी उदीरणा नही होती। शरीर पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवोंके शरीर पर्याप्तिके समाप्त होनेके अनन्तर समयसे लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक निद्रादिक पांचका