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सप्ततिकाप्रकरण प्रकारके हैं अतः इनकी अपेक्षा जीवस्थान और गुणस्थानोम जहाँ जितन सम्भव हो वहाँ उतने भंग घटित करने चाहिये।
विशेपार्थ-अभी तक ग्रन्थकारने मूल और उत्तर प्रकृतियो के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्वस्थान तथा उनके सवेध भग बतलाये है। साथ ही मूलप्रकृतियोंके इन स्थानो और उनके सवेध भगोंके जीवन्थान और गुणस्थानो की अपेक्षा स्वमीवा निर्देश भी किया। किन्तु अभी तक उत्तर प्रकृतियोंके बन्धस्थान, उदय स्थान तथा इनके परस्पर सवेध भगांके स्वामीका निर्देश नहीं किया है जिसका किया जाना जरूरी है। इसी कमीको ध्यानमे रखकर ग्रन्थकारने इस गाथाद्वारा स्वामी के निर्देश करने की प्रतिज्ञा की है। गाथाका आशय है कि तीन प्रकारके प्रकृतिस्थानोके सव भंग जीवस्थान और गुणस्थानामे घटित करके बतलाये जायगे। इससे प्रतीत होता है कि ग्रन्यकारको जीवस्थानो और गुणस्थानोंमें ही भगोका कयन करना इष्ट है मार्गरणास्थानोमें नहीं। यही सवव है, जिससे मलयगिरि श्राचार्यने प्रथम गाथामें आये हुए 'सिद्धपद' का दूसरा अर्थ जीवस्थान और गुणस्थान भी किया है।
११.जीवस्थानों में संवेधभंग अब पहले जीवस्थानीमें बानावरण और अन्तराब कर्भके भंग बतलाते हैं
तेरसमु जीवसंखेवएसु नाणंतराय तिविगप्पो । एक्कम्मि तिदुविगप्पो करणं पइ एत्थ अविगप्पो ॥३४॥
अर्थ-प्रारम्भके तेरह जीवस्थानोंमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके तीन विकल्प होते हैं और पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय इस एक जीवस्थानमें तीन और दो विकल्प होते हैं। तथा द्रव्य मनकी अपेक्षा इसके कोई विकल्प नहीं है ।