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गुणस्थानों में नामकर्मके संवेध भंग २८३ यहाँ सत्तास्थान चार हैं-३, ६२,८९ और ८८। सो जिस अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण जीवने तीर्थकर और आहारकके साथ ३१ प्रकृतियोंका बन्ध किया और पश्चात् मर कर अविरत सम्यग्दृष्टि देव हो गया उसके ६३ की सत्ता है। जिसने पहले आहारक चतुष्कका बन्ध किया और तदनन्तर परिणाम बदल जानेसे मिथ्यात्वमें जाकर जो चारों गतियोमें से किसी एक गतिमें उत्पन्न हुआ उसके उस गतिमे पुनः सम्यग्दर्शनके प्राप्त हो जानेपर प्रकृतिकसच्चस्थान चारोगतियोंमें वन जाता है। किन्तु देव और मनुप्योके मिथ्यात्वको विना प्राप्त किये ही इस गुणस्थानमे ९० की सत्ता बन जाती है। ८६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि देव, नारकी और मनुष्योंके होता है। क्योंकि इन तीनो गतियोंमें तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध होता रहता है। तीर्थकर प्रकृति की सत्तावाला जीव तिर्यचॉमे नहीं उत्पन्न होता है अतः यहाँ तियेचीका ग्रहण नहीं किया। तथा ८८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चागे गतिके अविरत सम्यदृष्टि जीवोके होता है । इस प्रकार
अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वन्ध, उदय और सत्त्वस्थानोका चिन्तन किया।
अब इनके संवेधका विचार करते हैं-०८ प्रकृतियोंका वन्ध करनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीवके तिर्यंच और मनुष्योकी अपेक्षा पूर्वोक्त आठों उदयस्थान होते हैं। उसमें भी २५ और २७ प्रकृतिक उदयस्थान विक्रिया करनेवाले तिर्यंच और मनुष्योके ही होते हैं शेप छह सामान्यके होते हैं। इन उदयस्थानोमे से प्रत्येक