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सप्ततिकाप्रकरण :... मिच्छासाणे विइए नव चउ पण नव य संतंसा ॥३९॥ मिस्साइ नियट्टीो छचउ पण नव य संतकम्मंसा। चउबंध तिगे चउ पण नवस दुसु जुयल छस्संता ॥४०॥ उवसंते चउ पण नव खीणे चउरुदय छच्च चउ संतं ।
अर्थ-दर्शनावरण कर्मकी मिथ्यात्व और सास्वादनमें नौ प्रकृतियोंका वन्ध, चार या पांचका उदय और नौ की सत्ता होती है। मिश्र से लेकर अपूर्वकरणके पहले संख्यातवें भागतक छह का बन्ध, चार या पाचका उदय और नौकी सत्ता होती है। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोमें चारका बन्ध, चार या पांच का उदय और नौकी सत्ता होती है। क्षपकके ९ औ १० इन दो गुणस्थानोंमें चारका वन्ध, चारका उदय और छहको सत्ता होती है । उपशान्त मोह गुणस्थानमे चार या पांचका उदय और नौकी सत्ता होती है। तथा क्षीणमोह गुणस्थानमें चारका उदय तथा छह और चारकी सत्ता होती है ।।
(1) 'मिच्छा सासयणेसुं नवबंधुवलक्खिया उ दो भगा। मीसामो य नियट्टी ना छब्बघेण दो दो उ ॥ चठबंधे नब संते दोण्णि अपुवाउ सुहुमरागो जा। अव्वधे णव सते उवसते हुंति दो भंगा ॥ चठवधे छस्सते पायरसुहुमाणमेगुक्खवयाणं । छसु चउसु व संतेसु दोणि अवंधमि खोणस्स ॥'-पच्च० सप्त० गा० १०२-१०४ । 'गव सासणो ति बंधो छच्चेत्र अपुल्वपढमभागो ति । चत्तारि हॉति तत्तो सुहुमकसायस्थ चरिमो ति । खीणो त्ति चारि उदया पंचसु णिहासु दोसु गिटासु । एके उदयं पत्त खोणदुचरिमो त्ति पचुदया ॥ मिच्छादुवसतो ति य अणियटी खवगपढमभागो ति । एव सत्ता खोणास दुचरिमो तिय चदूवरिमे । गोकर्मः गा० ४६०-४६२॥"