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सप्ततिकाप्रकरण
बन्ध पाया जाता है | इससे यह मतलब निकला कि मिथ्यात्वके समान सास्वादन में भी किसी एक का बन्ध, किसी एक का उदय और दोनो का सत्व बन जाता है। इस हिसाब से यहाँ चार भंग प्राप्त होते हैं। ये भंग वे ही हैं जिनका मिध्यात्वमे क्रम नम्बर १, २, ३ र ४ मे उल्लेख कर आये हैं। तीसरे से लेकर पाँचवे तक बन्ध एक उच्च गोत्र का ही होता है किन्तु उदय और सत्त्व दोनो का पाया जाता है इसलिए इन तीन गुणस्थानोमें ( १ ) उच्चका बन्ध, उच्चका उदय और नीच उच्चका सत्त्व तथा (२) उच्च का बन्ध, नीच का उदय और नीच उच्च का सत्त्व ' ये दो भंग पाये जाते हैं। कितने ही आचार्यों का यह भी मत है कि पांचवें गुणस्थान में उच्चका वन्ध, उच्च का उदय और उच्चनीचका सच यही एक भंग होता है । इस विषय में आगमका भी वचन है । यथा
'सामन्नेणं वयजाईए उच्चागोयस्स उदो हो । '
अर्थात् 'सामान्य से संयत और संयतासंयत जातिवाले जीवो के उच्च गोत्रका उदय होता है । '
छठे से लेकर दसवे गुणस्थान तक ही उच्चगोत्र का बन्ध होता है, अतः इनमे उचका बन्ध, उच्चका उदय और उच्च नीचका सत्त्व यह एक भंग प्राप्त होता है । और ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें इन तीन गुणस्थानोमें उच्चका उदय और उच्च-नीचका सत्त्व यह एक भंग प्राप्त होता है । इस प्रकार छठेसे लेकर तेरहवें तक प्रत्येक गुणस्थान में एक भंग होता है यह सिद्ध हुआ । तथा अयोगिकेवली गुणस्थान में नीच गोत्रका सत्त्व उपान्त्य समय तक
हता है, क्योकि चौदहवें गुणस्थानमें यह उदयरूप प्रकृति न ' होनेसे उपान्त्य समय मे ही इसका स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उच्च