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सप्ततिकाप्रकरण होते समय भी ४६०८ भंग होते हैं। इस प्रकार यहाँ २९ प्रकृतिक वन्धस्थानके कुल भंग ९२४० होते हैं। तीर्थकर प्रकृतिके साथ देवगतिके योग्य २९ प्रकृतिक बम्धस्थान मिथ्याष्टिके नहीं होता, क्योकि तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे होता है, अतः यहाँ देवगतिके योग्य २६ प्रकृतिक वन्धम्थान नहीं कहा । तथा ३० प्रकृतिक बन्धस्थान पर्याप्त दोइद्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय और तिर्यंच पचेन्द्रियके योग्य प्रकृतियोका वन्ध करनेवाले जीवोके होता है। सो पर्याप्त दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय और चार इन्द्रियके योग्य ३० प्रकृतियोका वध होते समय प्रत्येकके आठ-आठ भग होते हैं। और तिर्यंच पंचेन्द्रियके योग्य ३० प्रकृतियोका वन्ध होते समय ४६०८ भंग होते हैं। इस प्रकर यहाँ ३० प्रकृतिक वधस्थानके कुल भंग ४६३२ होते हैं। यद्यपि तीर्थकर प्रकृतिके साथ मनुष्यगतिके योग्य और आहारकद्विकके साथ देवगतिके योग्य ३० प्रकृतियोंका वन्ध होता है पर ये दोनो ही स्थान मिथ्याष्टिके सम्भव नही, क्योकि तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे और आहारकद्विकका वन्ध सयमके निमित्तसे होता है। कहा भी है
___ 'समत्तगुणनिमित्त तित्थयरं सजमेण आहार ।'
अर्थात्-'तीर्थकरका वन्ध सम्यक्त्वके निमित्तसे और आहारक द्विकका वन्ध सयमके निमित्तसे होता है।'
अतः यहाँ मनुष्यति और देवगतिके योग्य ३० प्रकृतिक वन्धस्थान नहीं कहा। - इसी प्रकार अन्तर्भाष्य गाथामे भी मिथ्याष्टिके २३ प्रकृतिक आदि बन्धस्थानोके भंग बतलाये हैं। यथा'चउ पणवीसा सोलह नव चत्ताला सया य वाणउया। वत्तीयुत्तरछायालसया मिच्छस्स वन्धविही ।।'
हा।