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गुणस्थानोंमे नामकर्मके सवेध भंग २७७ करनेवाले सास्वादनके २ उदयस्थान होते हैं - ३० और ३१ । यह नियम है कि सास्वादन जीव देवगति प्रायोग्य ही २८ का वन्ध करता है नरकगति प्रायोग्य २८ का नहीं। उसमें भी करणपर्याप्त सास्वादन जीव ही देवगतिप्रायोग्यको बांधता है, अत यहा ३० और ३१ इन दो उदयस्थानोंको छोड़कर शेप उदयस्थान सम्भव नहीं। अब यदि मनुष्योकी अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थानका विचार करते है तो वहा १२ और ८८ ये दोनों सत्तास्थान सम्भव हैं। और यदि तिर्यच पचेन्द्रियोकी अपेक्षा ३० प्रकृतिक उदयस्थानका विचार करते हैं तो वहा १८ यह एक ही सत्तास्थान सम्भव हैं, क्योकि ६२ की सत्ता उसीके प्राप्त होती है जो उपशमश्रेणिसे च्युत होकर सास्वादनभावको प्राप्त होता है किन्तु तिर्यचौमें उपशमश्रोणि सम्भव नहीं अत. यहां उनके ९२ प्रकृतिक सत्तास्थानका निपेध किया। तथा ३१ प्रकृतिक उदयस्थानमे ८८ की ही सत्ता रहती है, क्यो कि ३१ प्रकृतिक उदयस्थान तिर्यंचोके ही प्राप्त होता है। तिर्यंच पचेन्द्रिय और मनुष्योके योग्य २९ का वन्ध करनेवाले सास्वादन जीवोके पूर्वोक्त सातो ही उदयस्थान मन्भव है। सो इनमेस और सब उदयस्थानोमे तो एक ८८ की ही सत्ता होती है किन्तु ३० के उदयमे मनुष्योके ६२ और ८८ ये दोनो ही सत्तास्थान सम्भव हैं। २६ के समान ३० प्रकृतिक वन्धस्थानका भी कथन करना चाहिये । इस प्रकार सास्वादनमे कुल ८ सत्तास्थान होते है। इस प्रकार सास्वादनमे बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका संवेध समाप्त हुआ।