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गुणस्थानोमे भंगविचार
२२७ गोत्ररूपसे परिणमन हो जाता है अत. इम गुणस्थानके उपान्त्य समय तक उच्चका उदय और उच्च-नीचका सत्त्व यह एक भंग होता है । तथा अन्त समयमे उच्चका उदय और उच्चका सत्त्व यह एक भग होता है । इस प्रकार गुणस्थानोमे गोत्र कर्मके भंगोका विचार किया।
अब आयुकर्म के भगोका विचार करते हैं। इस विपयमें अन्तर्भाष्य गाथा निम्न प्रकार है'अट्ठच्छाहिगवीसा सोलह वीस च बार छदोसु । दो चउसु तीसु एकक मिच्छाइसु आउगे भंगा।'
अर्थान्-'मिथ्यात्वमे २८, सास्वादनमे २६, मिश्रमें १६, अवि रत सम्यग्दृष्टि में २०, देशचिरतमे १२, प्रमत्त और अप्रत्तमें ६, अपूर्वादि चारमं २ श्रीर क्षीणमोह आदि तीनमें १ इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोमे आयु कर्मके भग होते हैं।'
नारकियोके पाच, तिथंचोके नौ, मनुष्योंके नौ और देवोंके पाच इस प्रकार आयुकर्मके २८ भग पहले वतला आये हैं वे सव भग मिथ्यारष्टि गुणस्थानमें सम्भव हैं, अत. यहाँ मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें २८ भंग कहे। सास्वादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य नरकायुका बन्ध नहीं करते, क्योकि नरकायुका बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होता है, अत. उपर्युक्त सभगोमे से (१)भुज्यमान तिर्यंचायु, वध्यमान नरकायु तथा तियेच नरकायुका सत्त्व (२) भुज्यमान मनुप्यायु, वध्यमान नरकायु तथा मनुष्य-नरकायुका सत्त्व ये दो भंग कम